छत्तीसगढ़ का इतिहास : छत्तीसगढ़ में कलचुरी राजवंश, कलचुरी शासक, प्रशासन व्यवस्था, पतन | CGPSC History Latest General Awareness 2022

छत्तीसगढ़ में कलचुरी वंश Kalchuri Dynasty in Chhattisgarh

भारत के इतिहास में कलचुरी राजवंश स्थान महत्वपूर्ण है 550 से लेकर 1750 तक लगभग 12 सौ वर्षो की अवधि में कलचुरी  नरेश उत्तर अथवा दक्षिण भारत में किसी ना किसी प्रदेश पर राज्य करते रहे शायद ही किसी राजवंश ने इतने लंबे समय तक राज्य किया होगा

वैसे हैहयवंश का पूरी जानकारी पुराणों से मिलती है प्रश्न उठता है कि कलचुरी कौन थे कहां से आए थे प्राचीन समय में कलचुरियो को कटचुरी प्रतिद्वंदी चालुक्य के द्वारा कस्तूरी तथा शिलालेख में कल्चुरी या काला चुरी कहा गया है डॉक्टर मिरासी ने इसका खंडन किया है कल छोरी कौन थे इसका निराकरण अभी तक नहीं हो पाया है लेकिन कचोरी और हैहयवंशी एक ही थे विद्वानों ने इसे चंद्रवंशी क्षत्रिय माना है।

कलचुरी वंश का मूल पुरुष कृष्णराज था जिसने इस वंश की स्थापना की और 500 से लेकर 575 ईसवी तक राज्य किया कृष्ण राज्य के बाद उसका पुत्र शंकरगंन प्रथम ने 575 से 600 ईसवी तक और शंकरगन के बाद उसका पुत्र बुधराज ने 600 से 620 ईसवी तक शासन किया किंतु 620 ईसवी के बाद लगभग 150 से 200 वर्ष तक कोई विवरण नहीं मिलता है।

नवी शताब्दी में कलचूरी ने साम्राज्य विस्तार किया और वामन राजदेव ने गोरखपुर प्रदेश पर अपने भाई लक्ष्मण राज को गद्दी पर बैठाया आगे चलकर वामराज का पुत्र त्रिपुरी को अपनी राजधानी बनाई वामराज देव की कालिंजर प्रथम और त्रिपुरी द्वितीय राजधानी रही रामराज देव त्रिपुरी के कलचुरी वंश का संस्थापक था

इस समय कल छोरियों को  चांदी नरेश कहा जाता था त्रिपुरी में स्थाई रूप से राजधानी स्थापित करने का श्रेय कोकल प्रथम को 875 से 900 है को कल अत्यंत प्राप्ति राजा था इसकी विषयों का उल्लेख बिल्हारी लेख से मिलता है।

कोकल के 18 पुत्रों में सबसे बड़ा शंकरगन दूसरा मुगदतुंग 900 से 925 ईसवी मैं त्रिपुरी की गद्दी प्राप्त हुई बिल्हारी अभिलेख से ज्ञात होता है कि मगद्दतुंग को 900 ईसवी में कौशल का राजा को पराजित कर कौशल पर अपना अधिकार जमा लिया था। कोकल के अन्य पुत्र अर्थात मगद्दतुंग का अनुज त्रिपुरी मंडल के मंडलअधी पति बने कुछ को बिलासपुर मंडल प्राप्त हुआ जिसमें से एक लाफा जमीदारी के अंतर्गत तुम्माड मैं जाकर बस गया

तुम्माड कि यह शाखा महाकौशल की स्वतंत्रता में लगी रही जबकि त्रिपुरी शाखा का विस्तार उत्तर दक्षिण पूर्व पश्चिम में हो गया मंडलेश्वर का या वंश तुम्माड में चलता रहा लेकिन बाद में कमजोर होने पर सोमवंशी ने यहां अपना अधिकार जमा लिया तब लक्ष्मण राज द्वारा त्रिपुरी में अपने पुत्र कलिंग राज को भेजा गया जिसमें ना केवल तुम्माड को अपने अंतर्गत किया बल्कि दक्षिण कौशल को भी अपने अंतर्गत कर लिया इसमें तुम्माड को अपनी राजधानी बनाई।

 इस वंश की स्थापना वामनराजदेव ने किया था। इस वंश के आदि पुरुष के रूप में कृष्ण राजदेव को माना जाता है। ये पूर्णतः त्रिपुरी के निवासी थे। इन्हे कल्चुरी के आलावा इन्हे प्राचीन समय में अलग -अलग नमो से जाना गया। कटच्चुरी,कालत्सुरी ,सहस्त्रार्जुन ,हैहयवंशी ,चेदीयनरेश आदि मानों से जाने जाते थे।
कल्चुरी राजवंश प्राचीनतम राजवंशों में से एक है इनका प्राचीन स्थान महिष्मति और बाद में त्रिपुरी वर्तमान में तेवर है । इसी त्रिपुरी राजवंश के एक लहुरी शाखा ने कालांतर में छत्तीसगढ़ में राज्य स्थापित किया था।
कलचुरी वंश छत्तीसगढ़ के इतिहास का स्वर्ण काल कहते हैं। इस वंश के राजाओ ने छत्तीसगढ़ के रजनीतिक , सामाजिक और संस्कृति को पोषित और उन्नत किया है।
कलचुरियों के छत्तीसगढ़ में लगभग नौ सदियों तक राज किया। कलचुरियों (हैहय) वंश के राजपूतो ने भारत के अलग-अलग स्थानों पर शासन किया। कलचुरियों के कई शाखाये थी जिसमे छत्तीसगढ़ में रतनपुर और रायपुर की शाखाएं स्थापित हुई।

  • छत्तीसगढ़ में कलचुरी वंश महत्वपूर्ण जानकारी –
  • नारायण मंदिर का निर्माण – देवपाल नाम के मोची ने कराया था।
  • नगर स्थापना – रायपुर नगर की स्थापना रामचंद्र देव ने अपने बेटे हरी ब्रम्हदेव राय के नाम पर किया।
  • राजधानी परिवर्तन – हरी ब्रम्ह देव ने खल्लारी से रायपुर स्थापित किया था।
  • कलचुरियों की जानकारी तवारीख ए हैहय वंशीय राजा की पुस्तक से पुस्तक के लेखक -बाबू रेवाराम थे।
  • कलचरी वंश की कुल देवी – गज लक्ष्मी
  • कलचुरी उपासक थे – शिव (शैव )
  • कलचुरियों के सिक्के पर -अंकित होता था – लक्ष्मी का
  • कलचुरियों के ताम्रपत्र की शुरुवात – ॐ नमः शिवाय से

छत्तीसगढ़ में कलचुरी वंश Kalchuri Dynasty in Chhattisgarh

नवमी सदी के अंत में कलचुरियों ने छत्तीसगढ़ में अपनी शाखा स्थापित करने का प्रयास किया। इसी क्रम में कोक्क्ल प्रथम ने अपने पुत्र शंकरगण (मुगधतुंग ) ने कोशल नरेश बाणवंशी विक्रमदित्य को पराजित कर पालि प्रदेश पर कब्ज़ा कर लिया। पाली प्रदेश में अपना शासन प्रारंभ कर तुम्माण को अपनी प्रथम राजधानी बनाया।
छत्तीसगढ़ में कलचुरी वंश का शासन काल को दो भागों में बाटा गया है जिसमे पहला रतनपुर शाखा ,और दूसरा रायपुर शाखा है।
 
छत्तीसगढ़ में कलचुरी वंश का रतनपुर शाखा Chhattisgarh me Kalchuri Vansh Ke Ratnpur Shakha

1. कलिंगराज़ (संस्थापक) – 1000-1020 ई.
2. कमलराज – 1020-1045 ई.
3. रत्नदेव – 1045-1065 ई.
4. पृथ्वीदेव प्रथम – 1065-1095 ई.
5. जाजल्लदेव प्रथम – 1095-1120 ई.
6. रत्नदेव द्वितीय – 1120-1135 ई.
7. पृथ्वीदेव द्वितीय – 1135-1165 ई.
8. जाजल्लदेव द्वितीय – 1165-1168 ई.
9. जगतदेव – 1168-1178 ई.
10. रत्नदेव तृतीय – 1178-1198 ई.
11. प्रतापमल्ल – 1198-1222 ई.
12. बाहरेन्द्र साय – 1480-1544 ई.
13. कल्याण साय – 1544-1581 ई.
14. तखत सिंह – 1685-1689 ई.
15. राज सिंह – 1689-1712 ई.
16. सरदार सिंह – 1712-1732 ई.
17. रघुनाथ सिंह – 1732-1745 ई.
18. मोहनसिंह – 1745-1757 ई.

छत्तीसगढ़ में कलचुरी वंश का शासन काल Kalchuri dynasty rule in Chhattisgarh

छत्तीसगढ़ में कलचुरी वंश की स्थापना कलिंगराज ने 1000 ई में किया था। रतनपुर की प्रसिद्दी चारो युगो में था। सतयुग में इसका नाम मणिपुर ,त्रेता में इसका नाम माणिकपुर ,द्वापर में हिरकपुर और कलयुग में रत्नपुर के नाम से प्रसिद्द है रतनपुर में कलचुर राजवंशों की लहुरी शाखा ने 10 वीं शताब्दी में राज्य स्थापित किया। शासनकाल 1000से 1741 तक था।

कलचुरि राजवंश के शासक:

कोक्कल-प्रथम (875-925): कोक्कल-प्रथम कलचुरि वंश का संस्थापक तथा प्रथम ऐतिहासिक शासक था जिसने राष्ट्रकूटों और चन्देलों के साथ विवाह-सम्बन्ध स्थापित किये। प्रतिहारों के साथ कोक्कल-प्रथम का मैत्री-सम्बन्ध था। इस प्रकार उसने अपने समय के शक्तिशाली राज्यों के साथ मित्रता और विवाह द्वारा अपनी शक्ति भी सुदृढ़ की। कोक्कल-प्रथम अपने समय के प्रसिद्ध योद्धाओं और विजेताओं में से एक था।

गांगेयदेव: गांगेयदेव लगभग 1019 ई. में त्रिपुरी के राजसिंहासन पर बैठा। गांगेयदेव को अपने सैन्य-प्रयत्नों में विफलता भी प्राप्त हुई किन्तु उसने कई विजयें प्राप्त की और अपने राज्य का विस्तार करने में काफी अंश तक सफलता प्राप्त की। उसके अभिलेखों के अतिरंजनापूर्ण विवरणों को न स्वीकार करने पर भी, यह माना गया है कि गांगेयदेव ने कीर देश अथवा कांगड़ा घाटी तक उत्तर भारत में आक्रमण किये और पूर्व में बनारस तथा प्रयाग तक अपने राज्य की सीमा को बढ़ाया। प्रयाग और वाराणसी से और आगे वह पूर्व में बढ़ा। अपनी सेना लेकर वह सफलतापूर्वक पूर्वी समुद्र तट तक पहुँच गया और उड़ीसा को विजित किया। अपनी इन विजयों के कारण उसने विक्रमादित्य का विरुद धारण किया। उसने पालों के बल की अवहेलना करते हुए अंग पर आक्रमण किया। इस आक्रमण में उसे सफलता प्राप्त हुई। यह सम्भव है कि गांगेयदेव ने कुछ समय तक मिथिला या उत्तरी बिहार पर भी अपना अधिकार जमाये रखा था।

लक्ष्मीकर्ण: गांगेयदेव के उपरान्त उसका प्रतापी पुत्र लक्ष्मीकर्ण अथवा कर्णराज सिंहासन पर बैठा। वह अपने पिता की भांति एक वीर सैनिक और सहस्रों युद्धों का विजेता था। उसने काफी विस्तृत और महत्त्वपूर्ण विजयों द्वारा कलचुरि शक्ति का विकास किया। कल्याणी और अन्हिलवाड के शासकों से सहायता प्राप्त कर कर्ण ने परमार राजा भोज को परास्त कर दिया। उसने चन्देलों और पालों पर विजय प्राप्त की। उसके अभिलेख बंगाल और उत्तर प्रदेश में पाये गये हैं, जिनसे यह सिद्ध होता है कि इन भागों पर उसका अधिकार था। कर्ण का राज्य गुजरात से लेकर बंगाल और गंगा से महानदी तक फैला हुआ था। उसने कलिंगापति की उपाधि ली।

यशकर्ण: यश कर्ण सन सन 1703 के लगभग त्रिपुरी के सिंहासन पर बैठा। उसने वेंगी राज्य और उत्तरी बिहार तक धावे बोले। उसके पिता के अंतिम दिनों में उसके राज्य की स्थिति काफी डावांडोल हो गयी थी और इसी डावांडोल स्थिति में उसने राज्सिनासन पर पैर धारा था। परन्तु अपने राज्य की इस गड़बड़ स्थिति का विचार न करते हुए यशकर्ण ने अपने पिता और पितामह की भांति सैन्य-विजय क्रम जारी रखा। पहले तो उसे कुछ सफलता मिली, लेकिन शीघ्र ही उसका राज्य स्वयं अनेक आक्रमणों का केंद्र बिंदु बन गया। उसके पिता और पितामह की आक्रमणात्मक साम्राज्यवादी नीति से जिन राज्यों को क्षति पहुंची थी, वे सब प्रतिकार लेने का विचार करने लगे। दक्कन के चालुक्यों ने उसके राज्य पर हमला बोल दिया और अपने हमले में वे सफल भी रहे। गहड़वालों के उदय ने गंगा के मैदान में उसकी स्थिति पर विपरीत प्रभाव डाला। चंदेलों ने भी उसकी शक्ति को सफलतापूर्वक खुली चुनौती डी। परमारों ने यश कर्ण की राजधानी को खूब लूटा-खसोटा। इन सब पराजयों ने उसकी शक्ति को झकझोर दिया। उसके हाथों से प्रयाग और वाराणसी के नगर निकल गए और उसके वंश का गौरव श्रीहत हो गया।

यशःकर्ण के उत्तराधिकारी और कलचुरी वंश का पतन: यशः कर्ण के उपरांत उसका पुत्र गया कर्ण सिंहासनारूढ़ हुआ किन्तु वह अपने पिता के शासन काल में प्रारंभ होने वाली अपने वंश की राजनैतिक अवनति को वह रोक न सका। उसके शासन-काल में रत्नपुरी की कलचुरि शाखा दक्षिण कौशल में स्वतन्त्र हो गई। गयाकर्ण ने मालवा-नरेश उदयादित्य की पौत्री से विवाह किया था। इसका नाम अल्हनादेवी था। गयाकर्ण की मृत्यु के बाद, अल्हनादेवी ने भेरघाट में वैद्यनाथ के मन्दिर और मठ का पुनर्निर्माण कराया। गयाकर्ण का अद्वितीय पुत्र जयसिंह कुछ प्रतापी था। उसने कुछ अंश तक अपने वंश के गौरव को पुनः प्रतिष्ठापित करने में सफलता प्राप्त की। उसने सोलंकी नरेश कुमारपाल को पराजित किया। जयसिंह की मृत्यु 1175 और 1180 के मध्य किसी समय हुई। उसका पुत्र विजयसिंह कोक्कल-प्रथम के वंश का अन्तिम नरेश था जिसने त्रिपुरी पर राज्य किया। विजयसिंह को 1196 और 1200 के बीच में जैतुगि-प्रथम ने, जो देवगिरि के यादववंश का नरेश था, मार डाला और त्रिपुरी के कलचुरि वंश का उन्मूलन कर दिया।


रतनपुर कलचुरी वंश के प्रमुख शासक Ratanpur Kalchuri Vansh Ke Prmukh Shask

  • संस्थापक – कलिंगराज
  • शासनकाल – 1000 -से 1741 तक
  • धर्म – शैव
  • कुलदेवी – गजलक्ष्मी
  • राजकीय भाषा – संस्कृत
  • प्रथम राजधानी – तुम्माण

कलिंगराज Kalingaraj

कलचुरियो का वास्तविक सत्ता 1000 ईस्वी में कलिंगराज द्वारा तुम्माड राजधानी बनाकर स्थापित की गई इसने 1020 ईसवी तक शासन किया।

Note. चैतुरगढ़ तमाड़ में महिषासुर मर्दिनी मंदिर का निर्माण करवाया।

  • शासन काल 1000 – 1020 ई. तक
  • कलिंगराज कोकक्ल II के पुत्र थे।
  • जिसने दक्षिण कोशल को जीतकर तुम्माण को राजधानी बनाया।
  • दक्षिण कोशल में कलचुरी वंश के वास्तविक संस्थापक।
  • परममहेश्वर की उपाधि धारण की थी।
  • कलिंगराज की राजधानी तुम्माण थी।
  • अमोदा से प्राप्त ताम्रपत्र से कलिंगराज की जानकारी मिलती है।

कमल राज Kamal Raj

कलिंग राज्य का उत्तराधिकारी उसका पुत्र कमल राज बना लगभग 1020 ईस्वी में राजा हुआ इसने त्रिपुरी के राजा गंगदेव द्वारा ओडिशा पर आक्रमण के अवसर पर कमल राज ने उसकी सहायता की थी।

  • शासनकाल – 1020 से 1045 ई तक
  • राजधानी – तुम्माण
  • कमल राज ने त्रिपुरी राजा के ओडिशा अभियान में सहायत की थी। इस अभियान में उत्कल नरेश को पराजित किया था।
  • कमलराज ने त्रिपुरी के कलचुरी शासक गांगेयदेव के स्वामित्व को स्वीकार किया। गांगेयदेव के उड़ीसा अभियान में साथ दिया।

रत्नदेव प्रथम Ratnadev I

कमल राज का उत्तराधिकारी उसका पुत्र रत्न देव प्रथम बना इसका विवाह कोमो मंडल के अधिपति वजूद की पुत्री नोंनल्ला से हुआ था संभवत इस संबंध के कारण कलचुरियो की स्थिति मजबूत हो गई रत्न देव प्रथम के काल में अनेक निर्माण तुम्माड में किए गए लगभग 1050 ईसवी में रतनपुर नामक नगर बसाया राजधानी तुम्माड से रतनपुर बनाया रतनपुर के नाम पर कलचुरियो के दक्षिण कौशल की इस शाखा को इतिहासकारों द्वारा रतनपुर के कलचुरीयों के नाम से संबोधित किया जाता है रत्ना देव ने नवीन राजधानी में अनेक तालाबों का निर्माण करवाया प्रसिद्ध महामाया मंदिर का निर्माण इन्हीं के द्वारा किया गया रतनपुर को कुबेरो की उपमा दी गई और उसका महत्व और बढ़ गया।

  • शासनकाल 1045 से 1065 तक
  • उत्तराधिकारी – कमलराज का पुत्र
  • राजधानी तुम्माण से रतनपुर को नई राजधानी बनाया।
  • स्थापत्य – महामाया मदिर का मिर्माण , तुम्माण में शिव मंदिर का निर्माण , महिषासुर मर्दनी मंदिर लाफागढ़ (कोरबा)
  • साक्ष्य – जाज्ज्वल देव प्रथम के रतनपुर अभिलेख से प्राप्त होता है की कमल राज के पुत्र का नाम रत्नदेव
  • सन 1050 में मणिपुर नमक प्राचीन ग्राम को नगर के रूप में बसाया और उसे रतनपुर का नाम दिया। जिसका पूर्व में नाम कुबेरपुर था।
  • रत्नदेव प्रथम का विवाह कोमोमण्डल के अधिपति वज्जुक या वजूवर्मन की पुत्री नोनवल्ला से हुआ।
  • रत्नदेव के शासन काल में रतनपुर नगर की सम्पन्नता को देखकर नगर को कुबेरपुर कहा जाता था।

पृथ्वी देव प्रथम Prithvi Dev I

रत्न देव प्रथम के पश्चात उसका पुत्र पृथ्वी देव प्रथम उत्तराधिकारी बना इसकी सर्वप्रथम तिथि रायपुर ताम्रपत्र कलचुरी संवत 821 अथवा 1095 ईसवी ज्ञात होती है इन्होंने सकलकोसलाधिपती की उपाधि प्राप्त की एवं कौशल क्षेत्र के 21000 ग्रामों के स्वामी कहलाए इसके काल में सम्मान एवं रतनपुर का निर्माण कार्य हुआ था।

Note.

* प्रचंड कोसलाधीपति की उपाधि प्राप्त की।

* लाफागढ़(चैतुरगढ़) का किला बनवाया था इस किले के तीन प्रमुख द्वार थे।

1 मेनका दरवाजा

2 सिंह द्वार

3 हुक्करा दरवाजा

* इसका मंत्री विग्रह राजा था।

  • शासनकाल 1065 से 1095 तक
  • उत्तराधिकारी रत्नदेव का पुत्र
  • पृथ्वीदेव प्रथम ने सकलकोसलाधिपति और प्रचंड कोसलाधिपति की उपाधि धारण की थी (यही उपाधि पाण्डु वंश के शासक महाशिव तीवरदेव ने भी धारण की थी। )
  • अमोदा से प्राप्त ताम्रपत्र अभिलेखों में उन्हें 21 हजार ग्रामो का शासक बताया गयाहै।
  • निर्माण – पृथ्वीदेव प्रथम ने तुम्माण में पृथ्वीदेवेश्वर नमक मंदिर की निर्मण कराया ,रतनपुर में विशाल सरोवर का निर्माण कराया।
  • चित्तौड़गढ़ (लाफागढ़) का किला निर्माण। इसके तीन मुख थे मेनका दरवाजा, सिंहद्वार और हुंकार द्वार।

जाज्ज्वल देव प्रथम Jajwal Dev I

जाजल्ल देव प्रथम अपनी पिता पृथ्वी देव प्रथम के पश्चात राजा बना जिसके रतनपुर शिलालेख में इसकी विजय का उल्लेख है नंदा वली एवं कुक्कुट के राजा इसकी अधिसत्ता स्वीकार कर इसे कर देते थे। जाजल्ल  देव ने चक्रकोर्ट के अंदर नागवंशी राजा सोमेश्वर देव को दंड देने के उद्देश्य से उसकी राजधानी को जला दिया था तथा उसे मंत्री और उसके रानियों सहित कैद कर लिया था उसकी माता गुड महादेवी के अनुरोध पर इसे मुक्त कर दिया अपने सुवर्नपुर में भुजबल को कैद किया था इस प्रकार इस की वृद्धि हुई।

इसने अपने नाम पर स्वर्ण मुद्रा जारी कराई अपने नाम पर जा जयपुर शहर बसाया और पाली के शिव मंदिर का जीर्णोद्धार कराया जो आज भी सुरक्षित है। सोने के सिक्के पर श्री मज्जाजल्य देव एवं गज शार्दुल अंकित करवाया।

Note.

*इन्होंने जांजगीर में वैष्णो मंदिर का निर्माण करवाया।

*इनके मंत्री पुरुषोत्तम देव थे।

*इनके गुरु रूद्र शिव थे।

*अपने अंतिम समय में मकरध्वज जोगी नामक व्यक्ति के साथ गए फिर वापस ना लौटे।

  • शासनकाल 1095 से 1020 तक
  • उत्तराधिकारी पृथ्वीदेव प्रथम
  • कलचुरी वंश का सबसे शक्तिशाली राजा।
  • जाज्ज्वल देव प्रथम ने गज सार्दूल की उपाधि धारण की थी।
  • जाज्ज्वल देव प्रथम के गुरु रूद्रशिव और मंत्री पुरुषोत्तम।
  • स्वर्ण सिक्के इसी के शासनकाल में पहली बार छत्तीसगढ़ में चलाये गए।
  • सोने के सिक्के में अंकित श्री मज्जा जाज्ज्वल्य देव और गज
  • जाज्ज्वल देव प्रथम ने पाली के शिवमंदिर का जीर्णोद्धार कराया
  • जाज्ज्वल देव प्रथम ने जाजल्यपुर नगर बसाया (जांजगीर)
  • बस्तर के छिन्दक नागवंशी राजा सोमेश्वर को पराजित किया।
  • जाजल्यदेव ने छिंदक नागवंशी शासक सोमेश्वर देव को पराजित किया।

रतन देव द्वितिय Ratn Dev II

जाजल्ल देव प्रथम के पश्चात रत्न देव द्वितीय 1127 ईस्वी में राजा हुआ इसने त्रिपुरी के कल्चुरीयों की सत्ता में आने से अस्वीकार कर दिया अतः त्रिपुरी के राजा गयाकर्ण ने इस पर आक्रमण किया किंतु उसे सफलता नहीं मिली इसी समय गंग वंश के राजा अनंतवर्मन चोड़गंग ने भी रतनपुर में आक्रमण किया किंतु शिवरीनारायण के पास उसे पराजित होकर लौटना पड़ा।

Note.

*इन्हें 36 विधवाओं का ज्ञाता भी कहा जाता है।

* इन्हें जगत सिंह भी कहा जाता है।

  • शासनकाल 1120 से 1135 तक
  • उत्तराधिकारी जाज्ज्वल देव प्रथम का प्रथम पुत्र
  • त्रिपुरी के कलचुरी राजाओं की सत्ता से इंकार कर दिया
  • त्रिपुरी राजा गयाकर्ण ने रतनपुर में आक्रमण कर दिया। इस युद्ध में रतनदेव द्वितीय विजयी रहे और छत्तीसगढ़ में स्वतन्त्र कलचुरी राजवंश की स्थापना हुई।
  • रतन देव द्वितिय के सामंत वल्लभ राज ने कोटगढ़ में तालाब का निर्माण कराया और अकलतरा में सूर्य पुत्र रेवन्त का मंदिर बनवाया।
  • रतन देव द्वितिय ने गोंड राजाओ को पराजित किया।
  • रतन देव द्वितिय विद्या और कला प्रेमी।

पृथ्वी देव द्वितीय Prithvi Dev II

रत्ना देव द्वितीय का उत्तराधिकारी उसका पुत्र पृथ्वी देव द्वितीय हुआ जिसका प्रथम अभिलेख कलचुरी 1138 ईस्वी का है इसके काल में रतनपुर का साम्राज्य अत्यंत विस्तृत हो गया था इसके राजिम शिलालेख से ज्ञात होता है कि इसका सेनापति जगतपाल सहरागढ़ (सारंगढ़), मचकार, भ्रमणकोट( चित्रकूट) कांतार, सिहावा, कुसुमभोग, कांदाडोंगर  के क्षेत्र को जीतकर साम्राज्य का विस्तार किया इसके पश्चात इसने चित्रकूट पर आक्रमण कर दिया इस वजह से अनंत वर्मा चोड़ गंग भयभीत होकर समुद्र तट भाग गया।

Note.

इसके शासन क़ाल में रतनपुर किले का निर्माण किया गया जिसे गज किले के नाम से भी जाना जाता है।

* भाई आकाल देव के नाम पर अकलतरा नगर की स्थापना की।

* इसका सामंत वल्लभ राज ने खारंग झील का निर्माण करवाया।

*चांदी के सबसे छोटे सिक्के जारी करने वाला राजा।

* इसके मंत्री जगपाल ने राजिम लोचन मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया।

  • शासनकाल 1135से 1165 तक
  • कलचुरियो के प्राप्त अभिलेखों में सर्वाधिक अभिलेख इन्ही के है।
  • चांदी का छोटा सिक्का चलाया
  • सेनापति जगतपाल देव ने विलासतुंग द्वारा स्थापित राजीव लोचन मंदिर का जीर्णोद्धार कराया। इसकी जानकरी राजिम के शिलालेख से मिलती है।
  • पृथ्वी देव द्वितीय के मंत्री और सेनापति जगतपाल देव ने सराहागढ़ (सारंगढ़) ,काकारय(कांकेर) भ्रमरकुट(बस्तर) को जीत कर अपने राज्य का विस्तार किया।
  • कलचुरिय साम्राज्य का सर्वाधिक विस्तार पृथ्वी देव द्वितीय के शासनकाल में हुआ
  • पृथ्वी देव द्वितीय ने रतनपुर में रतनपुर किले का निर्माण करवाया जिसे गजकीला के नाम से भी जाना है।

जाज्ज्वल्य देव द्वितीय Jajwl Dev II

रतनपुर के सिहासन पर अपने पिता पृथ्वी देव द्वितीय के बाद उसका पुत्र जाजल्ल देव द्वितीय बैठा इसकी जानकारी मल्हार शिलालेख 1167 ईसवी से मिलती है किसके काल में त्रिपुरी के कलचुरी राजा जयसिंह का आक्रमण हुआ किंतु वह असफल हो गया।

जाजल्ल देव द्वितीय के बाद उसके भाई जगदेव के राजा बनने का विवरण रत्न देव के खरौद शिलालेख में मिलता है इससे ज्ञात होता है कि जब जाजल्ल देव की मृत्यु हो गई तो उसके भाई स्वेच्छा से सिहासन छोड़कर गंग राजाओं के दमन के लिए निकला था और आकर सिहासन संभाला था।

Note.

किसके शासनकाल में कल्हन देव ने शिवरीनारायण में चंद्रचूर मंदिर बनवाया था।

  • शासन काल – 1165 से 1168 तक
  • जाज्ज्वल्य देव द्वितीय ने एक युद्ध लड़ा त्रिपुरी के कलचुरी शासक जयसिंह के साथ जिसमे जयसिंह परास्त हुआ और वापस लौट गया यह युद्ध शिवरीनारायण के मध्य हुआ था। इसकी जानकारी शिवरीनारायण अभिलरख से प्राप्त होता है।
  • जाज्ज्वल्य देव द्वितीय ने शिवरीनारायण में चंद्रचूड़ मंदिर का निर्माण करवाया।
  • सबसे कम समय राज्य किया ।

जगदेव Jaydev

  • शासनकाल -1168 से 1178 तक।
  • जाज्ज्वल्य देव की आकस्मिक मृत्यु के पश्चात रतनपुर में अशांति फैल गयी थी । जिसके कारण उसके बड़े भाई जगदेव को वापस आकर शासन अपने हाथों में लिया।

रत्नदेव तृतीय Ratndev III

जाजल्ल के पश्चात उसका पुत्र रत्न देव तृतीय गद्दी पर बैठा इसकी जानकारी 1168 ईसवी के खरौद शिलालेख से मिलती है यह जगदेव की रानी सोमल्लाह का पुत्र था इस पर शासन काल में अराजक स्थिति निर्माण हो गई थी इससे निपटने  के लिए गंगाधर को प्रधानमंत्री बनाया था और उसकी सहायता से नियंत्रण प्राप्त किया खरौद के लखेश्वर मंदिर के सभी मंडलों का जीर्णोद्धार करवाया।

Note

*इसके दो पत्नी थे।

1 रल्हा

2 पदमा

* इसके काल में भयंकर अकाल पड़ा।

  • शासनकाल 1178 से 1198 तक
  • ये जगदेव के पुत्र थे इनकी मा का नाम सोमल्ल था।
  • रत्नदेव तृतीय का उल्लेख खरौद के लखनेश्वर मंदिर की दीवार पर जेड शिलालेख से मिलती है।
  • रत्नदेव तृतीय ने उड़ीसा के ब्राम्हण गंगाधर राव को अपना प्रधानमंत्री नियुक्त किया।
  • रत्नदेव तृतीय ने खरौद में लखनेश्वर मंदिर का निर्माण करवाया।
  • रत्नदेव तृतीय ने रतनपुर में लखनीदेवी (एकवीरा) मंदिर का निर्माण किया।
  • रत्नदेव तृतीय के शासन काल में भयंकर आकाल पड़ा।

प्रतापमल्ल Prtapmall

रत्ना देव तृतीय के पश्चात प्रतापमल्ल राजा बना इसके तीन ताम्रपत्र पेंड्रा बंद ,कोनारी एवं बिलाईगढ़ नामक स्थान से प्राप्त हुआ है। इन अभिलेखों से ज्ञात होता है कि यह कम उम्र में ही अत्यधिक शक्तिमान था इसने तांबे के चक्र आकार एवं सठकोनिया सिक्के जारी कराया और इन के शासनकाल में जसराज एवं यशो राज का सम्मान हुआ था उसका उल्लेख बोरी अभिलेख एवं सहसपुर के सहस्त्रबाहु प्रतिमा से मिलता है।

प्रतापमल्ल के पश्चात रतनपुर के विषय में जानकारी देने वाली स्त्रोत में कमी है प्रतापमल्ल के बाद 1494 तक अर्थात लगभग 300 वर्ष तक इस वंश से संबंधित कोई जानकारी प्राप्त नहीं होती है प्रसिद्ध विद्वान बाबू रेवाराम और शिवदत्त शास्त्री गोराहा द्वारा लेख हैहयवंशी के अप्रकाशित इतिहास मिले हैं इसलिए 1222 से 1480 तक को अंधकार युक्त घोषित कर दिया गया है।

  • शासनकाल 1198 से 1222 तक
  • रत्नदेव का पुत्र था
  • प्रतापमल्ल ने अल्पायु में राजकाज प्राप्त कर लिया इससे संबंधित तीन अभिलेख प्राप्त होते है। पेंड्रा बन्ध कोनारी और पवनि(भिलाइगढ़) प्राप्त होते है।
  • प्रतापमल्ल ने  तांबे की सिक्का चलाया जिसमे सिंह और कटार की आकृति बनवाई।
Note – प्रतापमल्ल के बाद के शासकों का इतिहास लिखित रूप से प्राप्त नही होता है। इसलिए इस समय को कई विद्वानों ने अंधायुग कहा है । लगभग ये 1222 से 1480 तक का समय रहा।


बाहरेन्द्र साय Bahrendr Say

अंधकार युग के लंबे अरसे बाद वाहरेंद्र नामक राजा के विषय में जानकारी मिलती है इसका एक शिलालेख रतनपुर तथा दो शिलालेख को कोसगई से प्राप्त हुआ है जिसमें एक 1513 ईसवी का है और दूसरा तिथि विहीन है। वाहरेंद्र के अभिलेखों से उसके पूर्ववर्ती अनेक राजाओं के नाम मिलते हैं इसमें सिंघन तथा उसके पश्चात क्रमसे डंधरी, मदन ब्रह्मा, रामचंद्र तथा रत्न देव के नाम उल्लेख है वह रत्नदेव का पुत्र था। वाहरेंद्र के काल में राजधानी रतनपुर से बदलकर कोशगई (कोसांग) कर दी गई थी शासनकाल में पठानों का आक्रमण हुआ था इन्होंने उन्हें अभी सोन नदी तक खदेड़ दिया था सिंघम के पूर्ववर्ती एक राजा लक्ष्मीदेव का उल्लेख रायपुर के ब्रह्मदेव के अभिलेखों से मिलता है केंद्र का शासन काल 1480 से 1525 स्वीकृत किया जा सकता है 1222 से 1480 बाबू रेवाराम के अध्ययन अनुसार उनकी जानकारी मिलती है परंतु अगले की सांसो से उनका कोई जानकारी नहीं मिलता।

  • शासनकाल 1480 से 1544 तक
  • बाहरेन्द्र साय का अन्यनाम बाहर साय भी था।
  • बाहरेन्द्र साय ने अपनी राजधानी रतनपुर से हस्तांतरित कर छुरी कोसगई में कर लिया
  • बाहरेन्द्र साय ने कोसगई माता का मंदिर भी बनवाया।
  • बाहरेन्द्र साय ने कोसगाई कम कोषागार का निर्माण करवाया।
  • बाहरेन्द्र साय ने चैतुरगढ़ का किला का निर्माण किया।

कल्याण साय Kalyan Say

वाहरेंद्र साय के बाद रतनपुर में कालचुरियो के अभिलेख नहीं मिलते किंतु अन्य साक्ष्यों से ज्ञात होता है कि कल्याण साय नाम का राजा रतनपुर में लगभग 1544 तक राज्य किया था इसके समय की एक राजस्व पुस्तिका का उल्लेख मिलती है निश्चित जिसमें बिलासपुर के प्रथम अंग्रेज बंदोबस्त अधिकारी सन 1868 में इस पुस्तिका को आधार मानकर कल्चुर शासन व्यवस्था को समझकर महत्वपूर्ण प्रकाश डाला इस पुस्तिका के आधार पर इसमें रतनपुर और रायपुर के 18-18 गढ़ो का उल्लेख किया है। कल्याण सहाय अकबर का समकालीन था वह लगभग 8 वर्ष अकबर के दरबार में रहा। उनके समय राज्य की आर्थिक स्थिति अच्छी थी। इस समय संपूर्ण राज्य में होने वाला आए 6.50 लाख था उनका शासन 1581 ईसवी तक चलता रहा।

  • शासनकाल  1544 से 1581 तक
  • कल्याण साय जहाँगीर के समकालीन थे।
  • कल्याण साय ने राजस्व की जमाबंदी प्रणाली की शुरवात की।
  • छत्तीसगढ़ का प्रथम बंदोबस्त अंग्रेज अधिकारी म. चिषम जो अंग्रेज थे
  • ब्रिटिश अधिकारी म. चिषम ने जमाबंदी प्रणाली के आधार पर प्रदेश को 36 गढ़ो में विभाजित। किया बंदोबस्त के आधार पर म. चिषम ने शिवनाथ नदी की उत्तर में 18 गढ़ मुख्यालय रतनपुर और दक्षिण में 18 गढ़ जिसका मुख्यालय रायपुर को बनाया गया ।
  • जहाँगीर ने इसे 8 वर्षो तक नजरबंद किया था. (गोपपला गीत के अनुसार )

लक्ष्मणसाय Laxmanasay

  • देश में बही-खाता और लेखा-जोखा बजट प्रणाली की शुरुआत की

तख्त सिंह Takht Singh

  • शासनकाल 1685 से 1689 तक था
  • तख्तसिंह औरंगजेब के समकालीन था।
  • तख्तसिंह ने तखतपुर नगर की स्थापना की थी।

राज सिंह Raj Singh

  • शासनकाल 1689 से 1712 तक
  • राजसिंह ने राजपुर नामक नगर की स्थापना की थी।
  • राजसिंह औरंगजेब के समकालीन था।
  • राजसिंह के दरबार में प्रसिद्ध कवि गोपाल मिश्र ने अपने रचना ख़ूब-तमाशा में छत्तीसगढ़ का उल्लेख किया। छत्तीसगढ़ का उल्लेख सबसे पहले साहित्य में हुआ।

सरदारसिंह Sardar Singh

  • शासनकाल – 1712 से 1732 तक
  • सरदारसिंह का कोई विशेष उल्लेखनिय घटना ज्ञात बनहि होती है।

रघुनाथ सिंह Raghunath Singh

  • शासनकाल – 1732 से 1745 तक
  • रघुनाथ सिंह कलचुरी वंश के रतनपुर शाखा के अंतिम स्वतन्त्र शासक थे।
  • मराठा वंश की स्थापना 1742 में बिम्बाजी भोसले के सेनापति भास्कर पंत ने आक्रमण किया जिसमे रघुनाथ सिंह की हार हुई इस प्रकार रतनपुर शाखा के कलचुरी वंश का अंत और मराठा प्रशासन प्रारम्भ हुआ

मोहन सिंह Mohan Singh 

  • शासनकाल 1745 से 1757 तक
  • कल्चुरियों की समाप्ति का षड़यंत्र मोहन सिंह ने ही रचा था मराठो को आक्रमण हेतु इन्होने ही आमंत्रित किया था
  • मोहन सिंह की मृत्यु 23 जनवरी 1757 को हुई

खत सिंह

तखत सिंह ने तखतपुर की स्थापना 17वी सदी में कि इसके पश्चात राज सिंह राजा हुआ और राजपूर शहर बसाया जन तृतीय के अनुसार निसंतान थे ब्राह्मणों दीवानों के नियोग द्वारा इसे पुत्र उत्पन्न हुआ जिसका नाम विश्वनाथ सिंह था विश्वनाथ सिंह का विवाह रीवा की राजकुमारी के साथ हुआ था निरोग की घटना से क्रोधित होकर दीवान तथा उसके रिश्तेदारों के निवास स्थान को तोप से उड़ा दिया वही कालांतर में आत्म गलिन के कारण विश्वनाथ सिंह ने आत्महत्या कर ली थी।प्रसिद्ध कवि गोपाल (गोपाल चंद्र मिश्र) राज सिंह के रजाश्रय थे जिन्होंने खुद तमाशा लिखा था।

राज सिंह के उत्तराधिकारी नहीं होने के कारण उन्होंने रायपुर शाखा में मोहन सिंह को उत्तराधिकारी घोषित किया था। किंतु राज सिंह के मृत्यु के समय मोहन सिंह उपस्थित नहीं थे अतः राज सिंह ने राज्य अपने चाचा सिरदार सिंह को सौंप दिया सिरदार सिंह निसंतान होने के कारण उनका भाई रघुनाथ सिंह राजा बना जिस इस के शासन काल में ही मराठा सेनापति भास्कर पंथ उड़ीसा अभियान के अंतर्गत रतनपुर 1741 पर अधिकार जीत लिया कहां जाता है रघुनाथ सिंह उसके पुत्र की मृत्यु के बाद काफी दुखी रहने लगा था उसने भास्कर पंख का विरोध नहीं किया रतनपुर जिले का एक हिस्सा तोप से उड़ा दिया गया था रानियों के जरिए सफेद ध्वज फहराकर  घोषणा की भास्कर के नाम पर शासन करने की अनुमति दे दी।

इसके पश्चात रघुनाथ सिंह की मृत्यु के बाद मोहन सिंह मराठा के प्रतिनिधि के रूप में 1758 तक रतनपुर का शासक बना रहा 1758 में भोसला राजकुमार बिंबजी भोसले छत्तीसगढ़ में प्रथम मराठा शासक के रूप में प्रत्यक्ष शासन स्थापित किए।


रायपुर शाखा के कलचुरी वंश Kalchuri Dynasty of Raipur Branch

 
छत्तीसगढ़ में कलचुरी वंश 14 शताब्दी में दो शाखा में बंट गयी पहला शाखा रतनपुर में शासन किया और दूसरा रायपुर क्षेत्र में शासन करने लगा। रायपुर शाखा के नरेशों का शिलालेख रायपुर और खल्लारी से प्राप्त होता है।
रायपुर से प्राप्त अभिलेख 1415 ई.का है। ये अभिलेख रायपुर शाखा के कलचुरी शासक ब्रम्हदेव के काल के है। इस शाखा के अंतिम शासक अमरसिंह है जिसे रघुजी भोसले द्वितीय के हाथो 1750 ई में हार का सामना कारना पड़ा और अप्रत्यक्ष रूप से शासन करने लगा। जो की मराठा शासक के अधीन रह कर किया।
बाबू रेवाराम के इतिहास के अनुसार रतनपुर के कलचुरी नरेश जगन्नाथ सिंह देव के दो पुत्र 1 वीरसिंह देव और 2 देव सिंह देव, रतनपुर की गद्दी में जेष्ठ पुत्र होने के कारण वीरसिंघ को मिली ,और इस तरह राज्य का बटवारा हो गया।
देवसिंह देव को दक्षिण भाग मिला जो की शिवनाथ नदी के दक्षिण में स्थित था ,शिवनाथ नदी के उत्तर और दक्षिण के हिसाब से बटवारा हुआ था।
मुख्य संस्थापक – केशव देव
राजधानी – खल्लारी (महासमुंद)

रायपुर शाखा के प्रमुख शासक Chief ruler of Raipur branch

  • लक्ष्मीदेव – 1300 से 1340 तक
  • सिंघनदेव -1340 से 1380 तक
  • रामचंद्र देव – 1380 से 1400 तक
  • हरिब्रम्ह देव – 1400 से 1420 तक
  • केशव देव – 1420 से 1438 तक
  • भुनेश्वर देव – 1438 से 1468 तक
  • मानसिंह देव – 1468 से 1478 तक
  • संतोष सिंह दे – 1478 से 1498 तक
  • सूरत सिंह देव – 1498 से 1518 तक
  • सैनीसिंह देव – 1518 से 1563 तक
  • चामुण्डा नसंहिेव 1518 से 1563 तक
  • वंशी नसंहिेव 1563 से 1582 तक
  • धन नसंहिेव 1582 से 1604 तक
  • जैतसिंह देव 1604से 1615 तक
  • फत्ते नसंहिेव 1615 से 1636 तक
  • यादसिंह देव 1636 से 1650 तक
  • सोमदत्त देव 1650 से 1663 तक
  • बलदेवसिंग देव 1663 से 1682 तक
  • उमेंद सिंह देव 1685 से 1705 तक
  • बनवीरसिंह देव  1705 से 1741 तक
  • अमर सिंह देव  1741 से 1753 तक (अंतिम कलचुरी शासक) 

रायपुर कलचुरी शासन के अंतिम शासक अमरसिंह देव था जिसे बिम्बा जी द्वितीय ने हराया था।

कलचुरियो की रायपुर या लहुरी शाखा Kalchurio’s raipur or lahuri branch

kalchuri vansh in chattiisgarh कलचुरी शासक वीरसिंह देव के शासन में रतनपुर शाखा का विभाजन हो गया। दूसरी शाखा को लहुरी या रायपुर शाखा कहा गया।

केशव देव Keshav Dev

  • केशव देव को लहुरी शाखा का संस्थापक माना जाता है।(परम्परागत रूप से )
  • लहुरी शाखा की राजधानी – खल्लवाटिका (खल्लारी )
  • जबकि आयोग द्वारा रामचंद्र की संस्थापक के रूप में लिया गया है

रामचंद्र देव Ramchandr Dev 

  • इसे कलचुरियों की लहुरी शाखा के वास्तविक संस्थापक है। (cg psc के अनुसार )
  • रामचंद्र देव ने रायपुर नगर ब्रम्ह देव के नाम पर बसाया।
  • रामचंद्र देव के पिता सिंघनदेव थे

ब्रम्हदेव Brmhadev 

  • ब्रम्हदेव के नाम पर रायपुर नगर को रामचंद्र देव ने बसाया।
  • ब्रम्हदेव ने रायपुर को राजधानी सन 1409 में बनाया।
  • ब्रम्हदेव के शासनकाल में देवपाल नामक मोची ने सन 1415 में विष्णु मंदिर का निर्माण खल्लारी (महासमुंद) में किया।

अमर सिंह Amar Singh

  • रायपुर के लहरी शाखा के अंतिम राजा
  • मराठो ने सन 1750 में हराया
  • रायपुर, राजिम और पाटन की जमींदारी दे दी और 7000 रूपये अमर सिंह के जीविक चलने के लिए दे दी।

कलचुरियो का प्रशासन व्यवस्था

कलचुरियो ने इस प्रदेश में सबसे अधिक समय तक शासंन किया। इनकी शासन व्यवस्था राजतांत्रिक थी. जिसमे प्रशासन की छोटी इकाई ग्राम थी जिसके मुखिया को गौटिया कहा जाता था. सम्पूर्ण राज्य प्रशासनिक सुविधा के लिए गढ़ में विभाजित थे।

राज्य के कार्यों के संचालन एवं प्रबन्ध हेतु राजा को योग्य एवं विश्वस्त सलाहकारों एवं अधिकारियों की आवश्यकता होती थी। नियुक्तियां योग्यतानुसार होती थीं , किन्तु छोटे पदों पर जैसे-लेखक, ताम्रपत्र लिखने वाले आदि की नियुक्तियां वंश परम्परा अनुसार होती थी।

ग्राम

  • ग्राम के प्रमुख गौटिया होते थे।
  • 12 ग्रामों के समूह को बारह कहा जाता था। इसके प्रमुख को दाऊ/तालुकाधिपति कहते थे।
  • 7 बारह मिलकर अर्थात 84 गाँवो को मिलाकर गढ़ होता था. जिसके मुखिया को दीवान होता था।
  • 1 लाख गाँवो को मिलाकर एक मण्डल बनता था. ये प्रशासन की सबसे बड़ी इकाई होती है, इसके प्रधान को महामंडलेश्वर कहते थे।
  • ग्रामीण प्रमुख ग्रामकुट होते थे जो गौटिया के आधीन होते थे।
  • नगर प्रमुख पुर प्रधान कहलाते थे।
  • कलचुरियो के शासन व्यवस्था में स्थानीय प्रशासन के लिए पंचकुल नामक संस्था थी।
  • पंचकुल में पांच से दस सदस्य हो सकते थे. पंचकुल के सदस्य को महत्तर और पंचकुल के प्रमुख को महत्तम कहते थे।

कलचुरियो के मंत्रिमंडल

इसमें युवराज , महामन्त्री , महामात्य , महासन्धिविग्रहक (विदेश मंत्री), महापुरोहित (राकजगुरु), जमाबन्दी का मंत्री (राजस्व मंत्री) , महाप्रतिहार , महासामन्त और महाप्रमातृ आदि प्रमुख थे।
  • महामात्य – प्रमुख मंत्री (राजा का प्रशासनिक सलाहकार )
  • महासंधिविग्राहक – विदेश मंत्री
  • महाध्यक्ष – सचिवालय प्रधान
  • महाप्रतिहार – संचार विभाग का प्रधान
  • शोलकिक – कर अधिकारी
  • महापुरोहित – धार्मिक विभाग के प्रमुख
  • गमागमिक – यातायात अधिकार।

अधिकारी

  • इसमें अमात्य एवं विभिन्न विभाग विभागाध्यक्ष होते थे। 
  • महाध्यक्ष नामक अधिकारी सचिवालय का मुख्य अधिकारी होता था। 
  • महासेनापति अथवा सेनाध्यक्ष सैन्य प्रशासन का व दण्डपाषिक अथवा दण्डनायक आरक्षी (पुलिस) विभाग का प्रमुख , महाभाण्डागारिक , महाकोट्टापाल (दुर्ग या किले की रक्षा करने वाला) आदि अन्य विभागाध्यक्ष होते थे। 
  • अमात्य शक्तिशाली होते थे।

यातायात प्रबन्ध

  • यातायात प्रबन्ध का अधिकारी ‘ गमागमिक ‘ कहलाता था , जो गांव अथवा नगर से आवागमन पर नजर रखता था। 
  • यह अवैध सामग्री एवं हथियारों को जब्त करता था।

राज कर्मचारी

  • प्रायः सभी ताम्रपत्रों में चाट , भट , पिशुन ,वेत्रिक, आदि राजकर्मचारियों का उल्लेख मिलता है , जो राज्य के ग्रामों में दौरा कर सम्बंधित दायित्वों का निर्वाहन करते थे।
  • आय के स्रोत आय और उत्पाद के अनेक संसाधन थे। नमक कर , खान कर (लोहे , खनिज आदि पर) वन, चरागाह,बागबगीचा,आम,महुए आदि पर लगने वाले कर राज्य की आय के स्रोत थे। 
  • गांव में उत्पादित वस्तुओं पर निर्यात कर और बाहर की वस्तुओं पर आयात कर लगता था , जिस पर शासन का अधिकार होता था।
  • नदी के पार करने पर तथा नाव आदि पर भी कर लगाया जाता था। 
  • इसके अतिरिक्त मण्डीपिका अथवा मण्डी में माल की बिक्री के लिए आई हुई सब्जियों / सामग्रियों पर कर, हाथी , घोड़ें आदि जानवरों पर बिक्री कर लगाया जाता था। 
  • प्रत्येक घोड़े के लिए 2 पौर (चांदी का छोटा सिक्का) और हाथी के लिए 4 पौर कर लगाया जाता था। 
  • मण्डी में सब्जी बेचने के लिए (युगा) नामक परवाना (परमिट) लेना पड़ता था , जो दिनभर के लिए होता था। 
  • 2 युगवों के लिए एक पौर दिया जाता था।

न्याय व्यवस्था

  • प्राचीन कलचुरीन कालीन न्याय व्यवस्था से सम्बंधिक जानकारी शिलालेख से प्राप्त नही होती है। 
  • दाण्डिक नामक एक अधिकारी न्याय अधिकारी होता था।

धर्म विभाग

  • धर्म विभाग का अधिकारी पुरोहित होता था। 
  • दानपत्रों में इन अधिकारी का उल्लेख प्राप्त होता है। दानपत्रों का लेखा-जोखा तथा हिसाब रखने के लिए ‘ धर्म लेखि ‘ नामक अधिकारी होते थे।

युद्ध एवं प्रतिरक्षा प्रबन्ध

  • हाथी,घोड़े,रथ,पैदल चतुरंगिणी सेना का संगठन अलग-अलग अधिकारी के हांथ में रहता था।
  • महावतों का बहुत अधिक महत्व था। 
  • सर्वोच्च सेनापति राजा होता था, जबकि सेना का सर्वोच्च अधिकारी सेनापति , साधनिक या महासेनापति कहलाता था। 
  • हस्तीसेना का प्रमुख महापिलुपति तथा अश्वसेना प्रमुख ‘ महाश्वसाधनिक ‘ कहलाता था। 
  • बाह्य शत्रुओं से रक्षा हेतु राज्य में पुर अर्थात नगर दुर्ग का निर्माण किया जा था जैसे तुम्मान ,रतनपुर ,जाजल्यपुर, मल्लालपत्तन आदि। 
  • पन्द्रहवीं सदि में तो रतनपुर नरेश बाहरसाय ने सुरक्षा की दृष्टि से कोसंगईगढ़ (छुरी) में अपना कोषागार बनवाया था।

राष्ट्र प्रबन्ध

  • विदेश विभाग को ‘ सन्धि विग्रहाधिकरण ‘ के नाम से जाना जाता था। 
  • सन्धि-सुतक-विग्रह-युद्ध इस विभाग के प्रमुख कार्य थे। 
  • इसके मुख्य अधिकारी को महासंधिविग्रहिक के नाम से पुकारा जाता था।

पुलिस प्रबन्ध

  • कानून एवं शांति व्यवस्था बनाए रखने हेतु पुलिस अधिकारी दण्डपाशिक, चोरों को पकड़ने वाला अधिकारी दुष्ट-साधक सम्पत्ति रक्षा के निमित्त पुलिस और नगरों मे सैनिक नियुक्त किये जाते थे।
  • दान दिए गए गांवों में इनका प्रवेश वर्जित था। 
  • राजद्रोह आदि के मामले में ये बेधड़क कहीं भी आ-जा सकते थे।

राजस्व प्रबन्ध

  • विभाग का मुख्य अधिकारी ‘ महाप्रमातृ ‘ होता था , जो भूमि की माप करवाकर लगान निर्धारित करता था।

स्थानीय प्रशासन

  • प्रत्येक विभाग के लिए एक पचंकुल या कमेटी होती थी जिसकी व्यवस्था और निर्णयों के क्रियान्वयन के लिए राजकीय अधिकारी होते थे। 
  • इनमें प्रमुख अधिकारी-मुख्य पुलिस अधिकारी , पटेल तहसीलदार, लेखक या करणिक, शुल्क ग्राह अर्थात छोटे-मोटे करों को उगाहने वाला तथा प्रतिहारी अर्थात सिपाही होते थे।
  • नगर के प्रमुख अधिकारी को पुरप्रधान तथा ग्राम प्रमुख को ग्राम कूट या ग्राम भोगिक , कर वशुल करने वाले को शोल्किक , जुर्माना दण्डपाशिक के द्वारा वसूला जाता था। 
  • गांव जमीन आदि की कर वसूली का अधिकार पांच सदस्यों की एक कमेटी को था। 
  • पञ्च कुल के सदस्य महत्तर कहलाते थे। इनका चुनाव नगर व गांव की जनता द्वारा होता था। इसके प्रमुख सदस्य महत्तम कहलाते थे।

राजवंश के अंतिम ज्ञात शासक प्रताप-मल्ल थे। प्रतापमल्ला ने अपने पुत्र परमर्दी देव के साथ गंगा क्षेत्र की सीमाओं पर आक्रमण करने के अपने प्रयासों को जारी रखा । पूर्वी गंगा शासक अनंगभीम देव III ने अपने सक्षम ब्राह्मण सेनापति, विष्णु की कमान में एक बड़ी सेना भेजी। अविभाजित संबलपुर जिले के सेओरी नारायण गांव में विंध्य पहाड़ियों के पास भीमा नामक नदी के किनारे पर दोनों सेनाएं आमने-सामने हुईं और कलचुरियों को पहली बार गंगा द्वारा बड़े पैमाने पर हराया गया। अनंगभीम के चटेश्वर मंदिर शिलालेख में उल्लेख किया गया है कि विष्णु ने कलचुरी राजा को इतना आतंकित किया कि बाद वाले ने “विष्णु को अपने राज्य में हर जगह देखा।”

प्रतापमल्ला को बंदी बना लिया गया और संबलपुर – सोनपुर – बोलांगीर के इलाकों के साथ-साथ जो अब छत्तीसगढ़ राज्य है, गंगा साम्राज्य को सौंपने के लिए मजबूर किया गया । बाद में अपने मंत्री विष्णु की सलाह से, अनंगभीम ने कलचुरी राजकुमार, परमर्दी देव को अपनी बेटी चंद्रिका के हाथ की पेशकश करके कलचुरियों के साथ एक राजनयिक और वैवाहिक गठबंधन स्थापित किया। एक बार गठबंधन सुरक्षित हो जाने के बाद, गंगा सेना ताकत में कई गुना बढ़ गई। परमर्दी देव की मृत्यु नरसिंह देव प्रथम के बंगाल के उमुरदान ( मयूरभंज जिले के अमरदा) पर आक्रमण की अंतिम दर्ज लड़ाई में हुई । परमर्दी देव ने अपने पूर्वी गंगा बहनोई की कमान के तहत बंगाल के मुस्लिम शासकों के खिलाफ पूर्वी भारत में स्वतंत्र और अर्ध-स्वतंत्र हिंदू राज्यों के अन्य सैनिकों के साथ पूर्वी गंगा सेना का नेतृत्व किया था। उनके उत्तराधिकारियों के भाग्य का पता नहीं है।

छत्तीसगढ़ के जलप्रपात का सम्पूर्ण जानकारी

रत्नापुर के कलचुरी शासकों ने सोने, चांदी और तांबे के सिक्के जारी किए, जिन पर जारीकर्ता का नाम नागरी लिपि में है । सिक्कों में चार प्रकार के डिज़ाइन होते हैं: [८]

  • गज-शारदुला : एक शेर और एक हाथी के बीच लड़ाई को दर्शाता है। यह डिजाइन उनके सभी सोने के सिक्कों और कुछ तांबे के सिक्कों पर होता है।
  • Hanumana : दर्शाया गया है हनुमान ऐसी, उड़ान एक राक्षस पेराई (जबकि बैठे या खड़े), एक होल्डिंग के रूप में विभिन्न बना हुआ, में trishula , या एक ध्वज लेकर। केवल तांबे के सिक्कों में ही यह डिज़ाइन होता है।
  • शेर: एक शेर को दर्शाता है, कभी-कभी एक मानव सिर के साथ। तांबे और चांदी के सिक्कों पर विशेष रुप से प्रदर्शित।
  • खंजर: तांबे के सिक्कों पर एक खंजर होता है।

उनके सिक्कों के भंडार निम्नलिखित स्थानों पर मिले हैं: [९]

  • सनासारी (या सोंसारी)
    • जज्जालदेव के 36 सोने के सिक्के
    • रत्नदेव के 96 सोने के सिक्के
    • पृथ्वीदेव के 459 सोने के सिक्के
  • सारंगढ़
    • जज्जालदेव के 26 सोने के सिक्के
    • रत्नदेव के 29 सोने के सिक्के
    • पृथ्वीदेव का १ सोने का सिक्का
  • भगौंदी
    • पृथ्वीदेव के १२ सोने के सिक्के
  • ददल-सिवनी
    • जज्जालदेव, रत्नदेव और पृथ्वीदेव के 136 सोने के सिक्के
  • बछंदा
    • 9 सोने के सिक्के, साथ ही कुछ अन्य सिक्के
  • रतनपुर
    • रत्नदेव के 10 सोने के सिक्के
  • सोनपुर और बैद्यनाथ
    • जज्जालदेव के 11 सोने के सिक्के
    • रत्नदेव के 9 सोने के सिक्के
    • पृथ्वीदेव के 5 सोने के सिक्के

पृथ्वीदेव के 3 चांदी के सिक्के बालपुर के पास महानदी नदी के किनारे से खोजे गए थे । उनके द्वारा जारी किए गए हजारों तांबे के सिक्के भी मिले हैं, जिनमें बिलासपुर जिले के धनपुर में 3900 तांबे के सिक्कों का भंडार भी शामिल है । [10]

रत्नदेव का सरखोन अभिलेख

वर्तमान छत्तीसगढ़ में कई स्थानों पर रत्नापुरा कलचुरी शासकों के शिलालेख मिले हैं: [1] [2]

  • पृथ्वीदेव I: अमोरा (या अमोदा), लफा, रायपुर
  • जजलदेव प्रथम: पाली, रतनपुर
  • रतनदेव II: अकालतारा, परगांव, शिवरीनारायण (या श्योरिनारायण), सरखोन (या सरखो)
  • पृथ्वीदेव II: दहकोनी (या डाइकोनी), राजिम , बिलाईगढ़ , कोनी, अमोरा, घोटिया,
  • जजलदेव द्वितीय: अमोरा, मल्हार (या मल्लार), शिवरीनारायण
  • रत्नदेव III: खरोद, पासीडो
  • प्रतापमल्ला: पेंड्रावन (या पेंड्राबंध) और बिलाईगढ़
 
 
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