जनजाति : सीजीपीएससी मुख्य परीक्षा विशेष CGPSC 2021-22 | VYAPAM | POLICE SI | Latest General Awareness

जनजाति का अर्थ (Meaning of Tribe) –

साधारणतया जनजाति का अर्थ एक ऐसे मानव समूह से समझ लिया जाता है जिसकी संस्कृति, रीति-रिवाज और व्यवहार के तरीके आदि विशेषताओं से युक्त होते हैं। वास्तव में, एक जनजाति उतनी आदिम नहीं होती जितनी कि इसे कुछ व्यक्तियों के द्वारा कल्पना और सुनी-सुनायी बातों के आधार पर इसे एक मनोरंजन के रूप में प्रस्तुत करने का प्रयत्न कर दिया जाता है। इतना अवश्य है कि जनजाति सभ्य समाजों की चमक-दमक से दूर किसी दुर्गम या भौगोलिक रूप से पिछड़े हुए क्षेत्र में जीवन व्यतीत करने वाला समूह है तथा इसकी सांस्कृतिक विशेषताएँ भी दूसरे समुदायों से भिन्न होती हैं, लेकिन केवल इसी आधार पर जनजाति को एक आदिम या असभ्य समूह नहीं कहा जा सकता। जनजातियों का जीवन सांस्कृतिक रूप से उतना पिछड़ा हुआ नहीं होता जितना कठिन आर्थिक और प्राकृतिक दशाओं के कारण पिछड़ा हुआ बना हुआ है।

इसी आधार पर डॉ श्यामाचरण दुबे ने लिखा है, “जनजातियों का अध्ययन एक जीवित समाज के जीवित अंग के रूप में किया जाना चाहिए, संग्राहालय की नुमायशी वस्तुओं के रूप में नहीं।”

जनजाति की परिभाषाएँ (Definitions of Tribes) –

(1) मजूमदार के अनुसार, “कोई जनजाति परिवारों तथा पारिवारिक वर्गों का एक ऐसा समूह है जिसका एक सामान्य नाम है, जिसके सदस्य एक निश्चित भू-भाग पर निवास करते हैं। एक सामान्य भाषा का प्रयोग करते हैं, जिन्होंने एक आदान-प्रदान सम्बन्धी तथा पारस्परिक कर्तव्य विषयक एक निश्चित व्यवस्था का विकास कर लिया है। साधारणतया एक जनजाति अन्तर्विवाह के सिद्धान्त का समर्थन करती है और उसके सभी सदस्य अपनी ही जनजाति के अन्तर्गत विवाह
करते हैं।”

(2) रिवर्स के अनुसार, “यह एक साधारण प्रकार का सामाजिक समूह है, जिसके सदस्य एक सामान्य बोली का प्रयोग करते हैं तथा युद्ध आदि जैसे सामान्य उद्देश्यों के लिए सम्मिलित रूप से कार्य करते हैं।”

विशेषताएँ अथवा लक्षण (Characteristics or Features) –

(1) जीविका के सोत- छत्तीसगढ़ में निवास कर रही जनजातियों के जीविकोपार्जन के विविध साधन है। वे कृषि, पशुपालन, आखेट और वनोपज संचयन आदि माध्यमों से अपनी आजीविका चलाते हैं। कुछ जातियाँ स्थानान्तरीय कृषि में संलग्न रहती हुई पशुपालन का कार्य भी करती हैं।इसके साथ ही धनुष-बाण के द्वारा छोटे-बड़े पशु-पक्षियों को शिकार, साथ ही पूरे परिवार की सहायता से मछली पकड़ने का भी कार्य किया जाता है। संचयन की प्रवृत्ति भी इन जातियों में देखी जाती है। जंगली पदार्थों में तेंदूपत्ता अचार, महुआ, चिरौंजी, शहद, गोंद, कुकुरमुत्ता आदि संगृहीत कर उससे भी अपना व परिवार का जीवनयापान करते हैं, इसके साथ ही श्रमिकों के रूप में भी कार्य करते हैं। विविध वस्तुओं का निर्माण भी इनके द्वारा किया जाता है।

(2) वैवाहिक प्रणाली- अन्य जातियों की तरह जनजातियों में विवाह प्रथा का विशेष महत्व है। यदि किसी जनजाति में विवाह साधारण ढंग से युवक तथा युवती की इच्छानुसार किया जाता है तो वही अपहरण-विवाह या राक्षस-विवाह का प्रचलन है, परन्तु अधिकांशतः क्रय-विवाह होते हैं। इनमें कन्या का मूल्य देकर विवाह सम्पन्न होता है। गोड़ तथा बैगा जनजातियों में जो व्यक्ति निर्धन होने के कारण कन्या का मूल्य नहीं दे पाते वे कन्या के घर जाकर नौकर के रूप में कार्य करते हैं। प्रायः वधू मूल्य परम्परागत रीति से निर्धारित होता है।

अपहरण-विवाह में युवक जिस युवती से प्रेम करता है उसे लेकर भाग जाता है और फिर पत्नी स्वीकार कर लेता है। बाद में समाज भी उन्हें पति-पत्नी के रूप में मान लेता है।

बैगा जनजाति में व्यक्ति को कन्या-मूल्य सेवा द्वारा चुकाना पड़ता है। इसे ही सेवा-विवाह कहते हैं।

इस प्रकार छत्तीसगढ़ की जनजातियों में अनेक माध्यमों से अपना जीवन साथी चुनने की प्रथा प्रचलित है।

(3) युवागृह- यह एक ऐसी सामाजिक संस्था है जो जनजाति समाजों के अतिरिक्त कहीं नहीं पायी जाती। जनजातियों में अविवाहित युवक-युवतियों के लिए पृथक-पृथक या मिश्रित निवास स्थान होते हैं, जिन्हें युवागृह कह सकते हैं। ये युवागृह भिन्न-भिन्न जनजातियों में भिन्न-भिन्न नामों से पुकारे जाते हैं। जैसे-घोटुल, मोरग, रंगबंग, गितिउमेश, किशोरगृह, शयनागार और कुमारगृह आदि। छत्तीसगढ़ में ये युवा गृह उरांव, खड़िया, गोंड, मरिया और भुइया जनजातियों में पाये
जाते हैं।

बस्तर में घोटुल युवागृह के नाम से जाना जाता है। यह एक मकान होता है जो गाँव से बाहर होता है।उसमें 15-16 वर्ष तक के युवक-युवतियाँ रात्रि में इकट्ठा होते हैं और पूरी रात्रि यहीं रहते हैं। घोटुल में युवकों को चेनिक और युवतियों को मुनियारी नाम से पुकारा जाता है। युवक-युवतियाँ सायंकाल घर के कार्यों से निवृत्त होकर शृंगार करके यहाँ पहुँचते हैं, फिर छोटे-छोटे समूहों में विभक्त हो समूह गान एवं नृत्य करते हैं। विविध कार्यक्रम देर रात्रि तक चलते रहते है।

ये वहीं सोते हैं और प्रायः अपने-अपने घरों को चले जाते हैं। ये युवागृह जनजातीय सामाजिक संगठन की प्रमुख इकाई है। इससे जनजाति युवा आमोद-प्रमोद के साथ ही सामाजिक जीवन की शिक्षा ग्रहण करते हैं। यौन-ज्ञान के साथ ही इन्हें यहाँ अनुशासन की भी शिक्षा मिलती है।

(4) धार्मिक स्थिति- धर्म किसी भी समाज की सबसे महत्वपूर्ण संस्था है। जनजातीय धार्मिकता के सन्दर्भ में मानावाद, जीववाद, प्रकृतिवाद, टोटमवाद, आत्मा की अमरता में विश्वास प्रमुख रूप से दृष्टिगोचर होते हैं। मानाबाद एक अलौकिक तथा अप्राकृतिक शक्ति में विश्वास करते हैं जो मनुष्य से परे हैं, मुण्डा जनजाति इसका अनुकरण करती है। जीववाद को मानने वाले संथाल एवं उरांव जनजाति के लोग हैं। ये शक्तिशाली देवताओं के अतिरिक्त अन्य आत्माओं में विश्वास करते हैं। ये पूजा आदि से बलि भी देते हैं। जीववाद अनेक व्यक्तियों और वस्तुओं में एक रहस्यमय अज्ञात तथा अवैयक्तिक शक्ति को मानता है।

प्रकृतिवाद को मानने वाले प्राकृतिक वस्तुओं की पूजा उपासना करते हैं। टोटमवाद टोटक प्रथाओं तथा विश्वासों पर वंश की उत्पत्ति के सम्बन्ध में तरह-तरह की कल्पनाएँ स्वीकारते हैं। कुछ जनजातियाँ आत्मा की अमरता स्वीकार करती हैं। इसलिये ये दो बार दाह-संस्कार की प्रथा का अनुसरण करते हैं। संथाल और अन्य जनजातियाँ मृतक की अस्थियाँ नदी में प्रवाहित करते हैं।

कुछ एक जनजातियाँ जादू-टोना को संस्कार के रूप में ग्रहण कर मानव इच्छा को सन्तुष्ट करती हैं। भील मृतात्माओं को स्वीकार करते हुए इन्द्रजाल तथा जादू-टोना, विद्या पर अटूट आस्था रखते हैं।

जनजातीय धर्मों एवं विश्वासों और हिन्दू धर्म में कुछ साम्यता दिखती है। इस प्रकार विविध जनजातियाँ अपनी-अपनी परम्परानुसार धार्मिक मान्यताओं और विश्वासों का अनुकरण करती दृष्टिगोचर होती हैं।

(5) भाषाई दृष्टि- भाषाई दृष्टिकोण से जनजातियों को तीन रूपों में देखा जा सकता है-द्रविड़ भाषा-भाषी जनजातियाँ, इनमें गोंडी, उरांव और माल्टों भाषा के जन छत्तीसगढ़ में रहते हैं। इस भाषा समूह में अनेक अन्य भाषाएँ भी प्रयुक्त होती है। आस्टो एशियाटिक भाषा-भाषी, जनजातियाँ, इसमें अनेक जनजातियाँ आती हैं जोकि मध्य प्रदेश में निवास करती हैं, जिसमें कोल, मुंडा, संथाली, कोरथ, खरिया, मीना, कामनी आदि हैं।

चीनी-तिब्बती भाषा-भाषी जनजातियाँ, इसको बोलने वाले मध्य प्रदेश में नहीं पाये जाते। छत्तीसगढ़ में निवास करने वाली जनजातियाँ द्रविड़ भाषा एवं आस्टो एशियाटिक भाषा के समूहों का ही प्रयोग करती हैं।

(6) सांस्कृतिक विशिष्टता – सांस्कृतिक दृष्टि से प्रथम जनजातीय समुदाय में वे जनजातियाँ रखी गई हैं जो आज भी आदिम अवस्था में हैं। ये जातियाँ दुर्गम तथा घने जंगलों में रहती हैं तथा झूम खेती और शिकार करके अपना जीवन-यापन करती हैं। बस्तर क्षेत्र में पहाड़ी मढ़िया बोडो इसी श्रेणी में आती हैं। ये सभ्य समाज से दूर रहने में ही अपनी सुरक्षा का अनुभव करती हैं। द्वितीय, अर्द्ध-जनजातीय समुदाय में वे जनजातियाँ आती हैं जो जंगलों में रहती हैं। झूम खेती करके
जीवन-यापन करती हैं तथा सभ्य समाज में भयभीत नहीं होती। इनमें गरीब तथा अमीर होते हैं और ये खेती के लिये कुल्हाड़ी का प्रयोग बहुत कम करते हैं। तृतीय, पर-संस्कृति ग्रहण की हुई जनजातीय समुदाय की जनजातियाँ जिन्होंने आधुनिक सभ्यता तथा संस्कृति के सम्पर्क के बाद भी अपनी मौलिकता को सुरक्षित रखा है।

ये लोग अन्य जातियों से अपना सम्बन्ध जोड़ते हैं। इनमें भील जाति प्रमुख है। ये स्वयं को प्रशासक वर्ग का मानते हैं। चतुर्थ, पूर्णतः आत्मसात् जनजातियाँ जो आधुनिक सभ्यता के सम्पर्क में पूरी तरह आ चुकी हैं। इनकी परम्पराएँ, प्रथाएँ, कलाएँ, विश्वास तथा सामाजिक संगठन के रूप भी बदल चुके हैं।

(7) साहित्यिक स्थिति- जनजातियों का साहित्य सामान्यतया मौखिक साहित्य पीढ़ी-दर-पीढ़ी मौखिक ढंग से चलता रहता है। अशिक्षा के प्रभाव में होने के कारण ये जनजातियों अपने मौखिक साहित्य को लिपिबद्ध नहीं कर पाते हैं, किन्तु आज आधुनिक सभ्यता के संसर्ग में आने के बावजूद भी इन्होंने अपने साहित्य को संगृहीत नहीं किया है, फिर भी इनके साहित्य के विविध रूप दृष्टिगोचर होते हैं। छत्तीसगढ़ की विविध जनजातियों में आख्यान एवं कल्पित कथाएँ प्रचलित हैं जो इनकी उत्पत्ति एवं सृष्टि रचना के सम्बन्ध में भिन्न-भिन्न धारणाएँ प्रस्तुत करती हैं।

इसी तरह लोककथाओं के माध्यम से जनजातीय विषय-वस्तु की भिन्नता मिलती है। ये पौराणिक कथाएँ देवी-देवताओं, प्राकृतिक घटनाओं से सम्बद्ध हैं। जनजातीय लोककथाओं का उद्देश्य शिक्षाप्रद, मनोविनोद और सत्य के रहस्योद्घाटन से सम्बन्धित है। अनेक जनजातियाँ कल्पित तथा दंतकथाओं को नाटक के रूप में भी प्रस्तुत करती हैं परन्तु ये आधुनिक नाटक से भिन्न होते हैं। इसी तरह जनजातियों में कहावतें और पहेलियाँ मौखिक रूप से पीढ़ी-दर-पीढ़ी चली आ रही हैं। ये जनजातीय साहित्यिक धरोहर हैं।

(8) मूर्ति एवं चित्रकला- भारत की अन्य जनजातियों की तरह छत्तीसगढ़ की जनजातियों में भी मूर्ति एवं चित्रकला के प्रति आकर्षण देखने को मिलता है। गोंड, संथाल तथा भील जनजातियाँ देवी-देवताओं की पत्थरों, मिट्टी तथा लकड़ी की मूर्तियाँ बनाते हैं। युवागृहों में मूर्तिकला के प्रमाण कहीं-कहीं देखने को मिलते हैं। आज के लोग हाथी, घोड़ा, मानव मूर्तियाँ बनाकर देवताओं को अर्पित करते हैं। इनके द्वारा निर्मित मूर्तियाँ इनकी जीविका के स्रोत भी हैं।

छत्तीसगढ़ की जनजातियों ने चित्रकला के माध्यम से अपनी ललितकला को काफी अभिव्यक्त किया है। दरवाजों, दीवारों, फर्श, बर्तन, वस्त्रों और आभूषण आदि को रंग-बिरंगे चित्रों द्वारा सुशोभित किया है। माडिया जनजाति के लोगों के सिर का पहनावा चित्रकारी से सज्जित रहता है। ये इसके सींगों को विविध रंगों से रँगते हैं। सौन्दर्य प्रसाधन के लिए आभूषणों में की गई चित्रकारी अपना विशिष्ट महत्व रखती है।

(9) संगीत एवं नृत्यकला- जनजातीय समाज में संगीत का विशेष महत्व है। ये धार्मिक एवं सामाजिक अवसरों पर नगाड़े, ढोल, बंशी आदि वाद्य द्वारा गाते-बजाते हैं। संगीत कला को जीवित रखने के उद्देश्य से ही ये जनजातियाँ इसे महत्वपूर्ण मानती हैं। युवागृहों में संगीत एवं नृत्य कला का विधिवत् प्रशिक्षण दिया जाता है। संगीत एवं नृत्य कला छत्तीसगढ़ की जनजातियों में विशेष रूप से देखी जा सकती है।

विविध अवसरों पर इन कलाओं के दर्शन किये जा सकते हैं। पशु नृत्य की परम्परा मण्डला के गोंड तथा बैगा जनजाति में प्रचलित है। कृषि नृत्य कृषि कर्म की सम्पूर्ण प्रक्रिया को व्यक्त करता है। उरांव और मुण्डा जनजातियाँ अपने कर्म नृत्य द्वारा कृषि कर्म को प्रस्तुत करती हैं। शिकार नृत्य विविध शिकारों की क्रिया प्रस्तुत करता है।

उरांव, खडिया, मुण्डा जनजातियाँ इस नृत्य में बहुत रुचि रखते हैं, धार्मिक नृत्य प्रायः सभी जनजातियों में देखा जाता है। बोंदों और खोड़ जनजाति में यह नृत्य संस्कारगत आचरण के रूप में माना जाता है। विवाह-नृत्य सभी जनजाति में विवाह के अवसर पर प्रस्तुत किया जाता है। संगीत एवं नृत्य की यह कला छत्तीसगढ़ जनजातियों में उनकी परम्परा को अभिव्यक्त करती है।

(10) वर्तमान शैक्षिक एवं सामाजिक स्थिति- छतीसगढ़ की जनजातियाँ शैक्षणिक दृष्टि से उन्नति की ओर अग्रसर हो रही हैं। अनेक जनजातियों में शैक्षणिक विकास तीव्र गति से देखने को मिला है। आधुनिक समाज के संसर्ग में आकर गोंड, उरांव, मुरिया, हल्बा आदि अनेक जनजातियों का शैक्षणिक स्तर उन्नति कर रहा है, परन्तु उसे व्यापक पैमाने पर विकसित करने की आवश्यकता है जिससे अधिकाधिक जनजातियाँ अशिक्षा के अन्धकार से मुक्ति पा सकें।

सामाजिक दृष्टि से छत्तीसगढ़ की जनजातियाँ अपने उत्थान के लिए संघर्षरत हैं। भारत सरकार ने 5 जनजातियों को अत्यन्त पिड़ा हुआ स्वीकार किया है। ये अबूझमाड़िया पटेल, कोटिया,
हिल कोरवा, बैगा और सहरिया हैं।

इनके विकास के लिए विशेष सामाजिक संगठनों का निर्माण कर इन्हें लाभान्वित करने का प्रयास किया जा रहा है। भारत सरकार द्वारा इन जनजातियों को सामाजिक प्रतिष्ठा दिलाने के लिए अनेक कल्याणकारी योजनाएँ चलाई जा रही है जिसके माध्यम से ये जनजातियाँ अपनी सांस्कृतिक धरोहर को समेटे हुए उन्नति की ओर आगे बढ़ रही हैं।

जनजातियाँ

भारत में अनुसूचित जनजाति की कुल संख्या 532 है। इसमें से लगभग 56 जनजातियाँ मध्य प्रदेश तथा छत्तीसगढ़ में निवास करती है।

मध्य प्रदेश में अबूझमाड़, बैगाचक और पातालकोट आदि कुछ ऐसे स्थान हैं जहाँ के आदिवासी नवीन सभ्यता के सम्पर्क से अभी भी बहुत दूर हैं। मध्य प्रदेश तथा छत्तीसगढ़ में शहडोल, सरगुजा, बिलासपुर, बस्तर, छिंदवाड़ा, धार और झाबुआ में जनजातियों की संख्या सर्वाधिक है। इनमें सबसे अधिक जनसंख्या गोंड, भील, बैगा और उरांव लोगों की है।

अन्य आदिवासी जातियों में अगरिया, हल्बा, मैना, भुरिया, भतरा, बनसा, गटावा, कमार, कंमार, खरिया, अमनी, मीना, मुंडा, नगसिया, मनिका, परिधान, बटेलिया, परसा, सहरिया, सौर, विराट और मीर प्रमुख हैं।

गोंड – गोंड स्वयं को गोंड न कहकर कोयतोर कहते हैं। इनकी अनेक उपजातियाँ हैं परन्तु सबके साथ कोयतोर शब्द लगा हुआ है। अबूझमाड़ी गोंडों का सबसे प्राचीन वर्ग है। बस्तर में पाये जाने वाले गोंड कोयतोर कहलाते हैं। ये लोग बस्तर जिले के भानुप्रतापपुर, बीजापुर, दन्तेवाड़ा, जगदलपुर, काँकेर, कोंडागाँव और नारायणपुर एवं मण्डला जिले की मण्डला और रामगढ़ तहसीलों में निवास करते हैं।

मध्य प्रदेश शासन ने 1981 में गोंडों को 51 समूहों में विभक्त किया है। इनके प्रमुख अगरिया, माड़िया, ओझा, परधान, खिरवार, मुड़िया, मुरिया, नागवंशी आदि हैं। अविभाजित मध्य प्रदेश में इनकी संख्या 15 लाख थी। इनका भोजन मोटा अनाज, माँस, जंगली कंदमूल, फल, मछली तथा अण्डे हैं।

सामान्यतः चावल और कुटकी का भोजन अधिक प्रचलित है। गोंड जीविकोपार्जन के लिये आखेट, स्थानान्तरित कृषि, मुर्गीपालन, मिट्टी के बर्तन, मोटे कपड़े, मधु और लाख का संचयन करते हैं।

भील- भील शब्द द्रविड़ भाषा के बील शब्द से बना है। इसका अर्थ कमान है। तीर कमान के व्यवहार में निपुण होने के कारण यह जनजाति भील कहलायी। मध्य प्रदेश में इनकी संख्या 12,29,930 है। भील शारीरिक रूप से सुगठित होते हैं। इनकी लम्बाई 5 फुट से 5 फुट 6 इंच तक होती है। झाबुआ में इनकी संख्या अधिकतम है।

सामाजिक दृष्टि से मीलों के तीन संस्तर होते हैं- पटलिया, साधारण और नायक। ये मुख्यतः माँसाहारी होते हैं। इनका प्रमुख खाद्यान्न मक्का तथा अन्य मोटे अनाज है। ये मदिरा प्रेमी भी होते हैं। जीविकोपार्जन के लिये कृषि, मछली पकड़ना,
मुर्गी पालन, लकड़ी काटना, शिकार करना प्रमुख कार्य हैं।

बैगा- बैगा आदिवासी मध्य प्रदेश में मण्डला, बालाघाट और छत्तीसगढ़ के बिलासपुर जिले में पाये जाते हैं। बैगा शब्द अनेकार्थी हैं। यह एक जाति विशेष का सूचक है।

अधिकांश मध्य प्रदेश तथा छत्तीसगढ़ में गुनिया और ओझा का पर्याय है। बैगाओं में बिंझवार बड़े जमींदार होते हैं। मण्डला में बैगाओं का एक छोटा समूह भारिया कहलाता है। बैगा आदिवासी की मुख्य सात शाखाएँ है-बिंझवार, भारोटिया, नारोटिया, रायमैना, कटमैना, कोरमान और गोंडमैना । जीविकोपार्जन के लिये कृषि, आखेट, मछली मारना, बाँस काटना, ओझा का कार्य करना, मजदूरी करना, शहद एकत्र करना प्रमुख कार्य है।

उराँव- उराँव छोटा नागपुर के प्रमुख आदिवासियों में से एक है। ये रायगढ़ जिले की धर्मजयगढ़, घरघोड़ा, जशपुर नगर, खरसिया एवं सरगुजा जिले की अम्बिकापुर, बैकुण्ठपुर, भरतपुर, जनकपुर, मनेन्द्रगढ़, पाल, सुकरी, सीतापुर तहसीलों में निवास करते हैं। मध्य प्रदेश तथा छत्तीसगढ़ में इनकी जनसंख्या लगभग 3,50,000 आँकी गई है। यहाँ इन्हें धाँगर या धाँगर उराँव कहा जाता है। इनकी आजीविका का प्रमुख साधन कृषि श्रम है। इनका राष्ट्रीय नृत्य जल है।

 

छत्तीसगढ़ की विशेष पिछड़ी जनजातियां

अबुझमाड़िया जनजाति नारायणपुर, दंतेवाड़ा एवं बीजापुर जिले के अबुझमाड़ क्षेत्र में निवासरत हैं। ओरछा को अबुझमाड़ का प्रवेश द्वार कहा जा सकता है। इस जनजाति की कुल जनसंख्या सर्वेक्षण 2002 के अनुसार 19401 थी। वर्तमान में इनकी जनसंख्या बढ़कर 22 हजार से अधिक हो गई है।

अबुझमाड़िया जनजाति के उत्पत्ति के संबंध में कोई ऐतिहासिक अभिलेख नहीं है। किवदंतियों के आधार पर माड़िया गोंड़ जाति के प्रेमी युगल सामाजिक डर से भागकर इस दुर्गम क्षेत्र में आये और विवाह कर वहीं बस गये। इन्हीं के वंशज अबुझमाड़ क्षेत्र में रहने के कारण अबुझमाड़िया कहलाये। सामान्य रूप से अबुझमाड़ क्षेत्र में निवास करने वाले माड़िया गोंड़ को अबुझमाड़िया कहा जाता है।

अबुझमाड़िया जनजाति का गाँव मुख्यतः पहाड़ियों की तलहटी या घाटियों में बसा रहता है। पंदा कृषि (स्थानांतरित कृषि) पर पूर्णतया निर्भर रहने वाले अबुझमाड़िया लोगों का निवास अस्थाई होता था। पेंदा कृषि हेतु कृषि स्थान को ‘कघई‘ कहा जाता है। जब ‘कघई‘ के चारों ओर के वृक्ष व झाडियों का उपयोग हो जाता थाा तो वो पुनः नई ‘कघई‘ का चयन कर ग्राम बसाते थे। वर्तमान में शासन द्वारा पेंदा कृषि पर प्रतिबंध की वजह से स्थाई ग्राम बसने लगे हैं।

इनके घर छोटे-छोटे झोंपड़ीनुमा लकड़ी व मिट्टी से बने होते हैं, जिनके ऊपर घासफूस की छप्पर होती है। घर दो-तीन कमरे का बना होता है। घर का निर्माण स्वयं करते हैं। घर में रोशनदानया खिड़कियाँ नहीं पाई जाती हैं। घर में बरामदा ‘‘अगहा‘‘ (बैठक), ‘‘आंगड़ी‘‘ (रसाई), ‘‘लोनू‘‘ (संग्रहण कक्ष) व बाड़ी होता है। ‘‘लोनू‘‘ में ही कुल देवता का निवास स्थान होता है।

घरेलू सामान में सोने के लिये ‘‘अल्पांजी‘‘ बैठने के लिये ‘‘पोवई‘‘ (चटाई), अनाज कूटने की ‘‘ढेकी‘‘, ‘‘मूसल‘‘, अनाज पीसने का ‘‘जांता‘‘ भोजन बनाने व खाने-पीने के लिए मिट्टी एल्यूमिनियम, लोहे व पीतल के बर्तन, सिल व कुल्हड़, कृषि उपकरणों में हल, कुदाली, गैंती, रापा (फावड़ा), हसिया इत्यादि, शिकार के लिये तीर कमान, फरसा, टंगिया, फांदा, मछली पकड़ने लिए, मछली जाल, चोरिया, डगनी आदि का उपयोग करते हैं।

स्त्रियाँ गोदना को स्थाई गहना मानती हैं। मस्तक, नाक के पास, हथेली के ऊपरी भाग, ठुट्ढी आदि पर गोदना सामान्य रूप से गोदवाया जाता है। गिलट या नकली चाँदी के गहने पहनते हैं। पैर में तोड़ा, पैरपट्टी, कमर में करधन, कलाईयों में चूड़ी, सुडेल (ऐंठी), गले में सुता, रूपया माला, चेन व मूंगामाला, कान में खिनवा, झुमका और बाला, नाक में फूली पहनती हैं। बालों को अनेक तरह के पिनों से सजाती हैं।

वस्त्र विन्यास में पुरूष लंगोटी, लुंगी या पंछा पहनते हैं। सिर पर पगड़ी बांधते हैं। स्त्रियां लुगरा को कमर से घुटने तक लपेटकर पहनती हैं। इनका मुख्य भोजन चावल, मड़िया, कोदो, कुटकी, मक्का आदि का पेज और भात, उड़द, मूंग, कुलथी की दाल, जंगली कंदमूल व भाजी, मौसमी सब्जियां, मांसाहार में विभिन्न प्रकार के पशु-पक्षी जैसे पड़की, मोर, कौआ, तोता, बकुला, खरगोश, लोमड़ी, साही, मुर्गा, बकरा का मांस खाते हैं। वर्षा ऋतु में मछली भी पकड़ते हैं। महुये की शराब व सल्फी का उपयोग जन्म से मृत्यु तक के सभी संस्कारों में अनिवार्य आवश्यकता के रूप में करते हैं।

अबुझमाड़िया जनजाति का आर्थिक जीवन पहले आदिम खेती (पेंदा कृषि), शिार जंगली उपज संग्रहण, कंदमूल एकत्रित करने पर निर्भर था। परंतु अब पेंदा कृषि का स्थान स्थाई कृषि ने ले लिया है। साथ ही विभिन्न तरह की मजदूरी का कार्य भी सीख गये हैं। घर के आस-पास की जमीन पर मक्का, कोसरा, मूंग व उड़द के अलावा मौसमी सब्जियाँ भी बोते हैं।

कृषि मजदूरी बहुत कम करते हैं। कृषि मजदूरी के बदले में इन्हें अनाज मिलता है। जंगल से शहद, तेंदूपत्ता, कोसा, लाख, गोंद, धवई फूल, हर्रा, बहेरा इत्यादि एकत्र कर बाजार में बेचते हैं। छोटे पशु-पक्षियों का शिकार भी करते हैं। गाय, बैल, बकरी, सुअर व मुर्गी का पालन करते हैं।

अबुझमाड़िया जनजाति पितृवंशीय, पितृनिवास स्थानीय व पितृसत्तात्मक जनजाति है। यह जनजाति अनेक वंश में विभक्त है। वंश अनेक गोत्रों में विभाजित है, जिन्हें ‘‘गोती‘‘ कहा जाता है। इनके प्रमुख गोत्र अक्का, मंडावी, धुर्वा, उसेंडी, मरका, गुंठा, अटमी, लखमी, बड्डे, थोंडा इत्यादि है।

प्रसव परिवार की बुजुर्ग महिलाएं या रिश्तेदार कराती हैं। पहले प्रसव के लिये ‘‘कुरमा‘‘ झोंपड़ा (पृथक से प्रसव झोंपड़ी) बनाया जाता था। शिशु की नाल तीर या छुरी से काटी जाती है। प्रसूता को पांचद दिन तक चालव-दाल की खिचड़ी बनाकर खिलाते हैं। हल्दी, सोंठ, पीपर, तुलसी के पत्ते, गुड़, अजवाईन आदि का काढ़ा बनाकर पिलाते हैं। छठें दिन छठी मनाते हैं। प्रसूता व शिशु को नहलाकर नया कपड़ा पहनाकर घर के देवता का प्रणाम कराते हैं। इस दिन शिशु का नामकरण भी होता है। पारिवारिक व सामाजिक मित्रों कोक महुये की शराब पिलाई जाती है।

युवकों का विवाह 18-19 वर्ष व युवतियों का विवाह 16-17 वर्ष में होता है। विवाह प्रस्ताव वर पक्ष की ओर से आता है। वधू के पिता से विवाह की सहमति मिलने पर वर का पिता रिश्तेदारी पक्की कर दोनों पक्षों के बुजुर्ग आपस में बैठकर सूक (वधु धन) तय करते हैं, जो अनाज, दाल, तेल, गुड़, नगद रूपये के रूप में होता है। इस जनजाति में वधु को लेकर वधुपक्ष के लोग वर के गांव में आते हैं। विवाह की रस्म जाति के बुजुर्गों द्वारा संपन्न वर के घर पर कराई जाती है। इस जनजाति में बिथेर (सहपलायन), ओडियत्ता (घुसपैठ) और चूड़ी पहनाना (विधवा/परित्यक्ता पुर्नः विवाह) की प्रथा भी प्रचलित है।

मृतक को दफनाते हैं। दाह-संस्कार पर कोई प्रतिबंध नहीं है। विशिष्ट और संपन्न व्यक्ति की याद में श्मशान में लगभग 8 फिट ऊंचा 4 फिट गोलाई का चैकोर विभिन्न पशु-पक्षी व देवी-देवता, भूत-प्रेत व संस्कारों से नक्कासी किये गये लकड़ी के खम्भा (अनाल गढया) गढ़ाते हैं। तीसरे दिन मृत्यु भोज दिया जाता है।

इनमें परंपरागत जाति पंचायत पाया जाता है। क्षेत्रीय आधार पर सर्वोच्च व्यक्ति मांझी (मुखिया) होता है, जिनके नीचे पटेल, पारा मुखिया व गायता होते हैं। इनका मुख्य कार्य अपने माढ़ (क्षेत्र) में शांति व्यवस्था, कानून आदि बनाये रखना, लड़ाई-झगड़ों विवादों का निपटारा करना व जाति संबंधी नियमों को बनाना व आवश्यकतानुसार संशोधन करना है।

इनके प्रमुख देवी-देवता बूढ़ादेव, ठाकुर देव (टालुभेट), बूढ़ीमाई या बूढ़ी डोकरी, लिंगोपेन, घर के देवता (छोटा पेन, बड़ा पेन, मंझला पेन) व गोत्रनुसार कुल देवता हैं। स्थानीय देवी-देवता में सूर्य, चंद्र, नदी, पहाड़, पृथ्वी, नाग व हिन्दू देवी-देवता की पूजा करते हैं। पूजा में मुर्गी, बकरा व सुअर की बलि दी जाती है।

प्रमुख त्यौहार पोला, काकसार व पंडुम आदि हैं। जादू-टोना और भूत-प्रेत के संबंध में अत्यधिक विश्वास करते हैं। तंत्र-मंत्र का जानकार गायता/सिरहा कहलाता है। इस जनजाति के स्त्री-पुरूष नृत्य व गीत के अत्यंत शौकीन होते हैं। विभिन्न त्यौहारों, उत्सवों, मड़ई और जीवन-चक्र के विभिन्न संस्कारों पर युवक-युवतियाँ ढोल, मांदर के साथ लोकनृत्य करते हैं। काकसार, गेड़ी नृत्य व रिलो प्रमुख नृत्य हैं। लोकगीत में ददरिया, रिलोगीत, पूजागीत, विवाह व सगाई के गीत तथा छठीं के गीत गाते हैं। ये ‘‘माड़ी‘‘ बोली बोलते हैं, जो द्रविड़ भाषा परिवार के गोड़ी बोली का एक रूप है।

वर्ष 2002 में कराये गये सर्वेक्षण में अबुझमाड़िया जनजाति में साक्षरता 19.25 प्रतिशत पाई गई थी।

कमार

कमार जनजाति गरियाबंद जिले की गरियाबंद, छूरा, मैनपुर तथा धमतरी जिले के नगरी तथा मगरलोड विकासखण्ड में मुख्यतः निवासरत हैं। महासमुंद जिले के महासमुंद एवं बागबाहरा विकासखण्ड में भी इनके कुछ परिवार निवासरत हैं। इस जनजाति को भारत सरकार द्वारा ‘‘विशेष पिछड़ी जनजाति‘‘ का दर्जा दिया गया है। 2011 की जनगणना अनुसार राज्य में इनकी जनसंख्या 26530 दर्शित है। इनमें 13070 पुरूष एवं 13460 स्त्रियाँ हैं।

कमार जनजाति अपनी उत्पत्ति मैनपुर विकासखण्ड के देवडोंगर ग्राम से बताते हैं। इनका सबसे बड़ा देवता ‘‘वामन देव‘‘ आज भी देवडोंगर की ‘‘वामन डोंगरी‘‘ में स्थापित है।

इस जनजाति के लोगों के मकान घास फूस या मिट्टी के बने होते हैं। मकान में प्रवेश हेतु एक दरवाजा होता है, जिसमें लकड़ी या बाँस का किवाड़ होता है। छप्पर घास फूस या खपरैल की होती है। दीवारों पर सफेद मिट्टी की पुताई करते हैं। फर्श मिट्टी का होता है, जिसे स्त्रियाँ गोबर से लीपती हैं। घरेलू वस्तुओं में मुख्यतः चक्की, अनाज रखने की कोठी, बांस की टोकनी, सूपा, चटाई, मिट्टी के बर्तन, खाट, मूसल बांस बर्तन बनाने के औजार, ओढ़ने बिछाने तथा पहनने के कपड़े, खेती के औजार जैसे – गैती, फावड़ा, हंसिया, कुल्हाड़ी आदि। इस जनजाति के लोग शिकार करते थे, तीर-धनुष तथा मछली पकड़ने का जाल प्रायः घरों में पाया जाता है।

पुरूष व महिलाएँ प्रतिदिन दातौन से दाँतों की सफाई कर स्नान करते हैं। पुरूष बाल छोटे रखते हैं तथा महिलाएँ लम्बे बाल रखती हैं। बालों को कंघी या ‘‘ककवा‘‘ की सहायता से पीछे की ओर चोटी या जूड़ा बनाती हैं। कमार लड़कियाँ 8-10 वर्ष की उम्र में स्थानीय देवार महिलाओं से हाथ, पैर, ठोढ़ी आदि से गुदना गुदवाती हैं। नकली चाँदी, गिलट आदि के आभूषण पहनती हैं। आभूषणों में हाथ की कलाई में ऐंठी, नाक में फुली, कान में खिनवा, गले में रूपियामाला आदि पहनती हैं। वस्त्र विन्यास में पुरूष पंछा (छोटी धोती), बण्डी, सलूका एवं स्त्रियाँ लुगड़ा, पोलका पहनती हैं।

कमार जनजाति का मुख्य भोजन चावल या कोदो की पेज, भात, बासी के साथ कुलथी, बेलिया, मँूग, उड़द, तुवर की दाल तथा मौसमी सब्जियाँ, जंगली साग भाजी आदि होता है। मांसाहार में सुअर, हिरण, खरगोश, मुर्गा, विभिन्न प्रकार के पक्षियों का मांस तथा मछली खाते हैं। पुरूष महुवा से शराब बनाकर पीते हैं। पुरूष धूम्रपान के रूप में बीड़ी व चोंगी पीते हैं।

इस जनजाति का मुख्य व्यवसाय बांस से सूपा, टूकना, झांपी आदि बनाकर बेचना, पक्षियों तथा छोटे अन्य जन्तुओं का शिकार, मछली पकड़ना, कंदमूल तथा जंगली उपज संग्रह और आदिम कृषि है। इनका मुख्य कृषि उपज कोदो, धान, उड़द, मूँग, बेलिया, कुलथी आदि है। इस जनजाति का आर्थिक जीवन का दूसरा पहलू वनोपज संग्रह है, जिसमें महुवा, तेन्दू, सालबीज, बांस, चिरौंजी, गोंद, आँवला आदि संग्रह करते हैं। इसे बेचकर अन्य आवश्यक वस्तुएँ जैसे – अनाज, कपड़े इत्यादि खरीदते हैं। कुछ कमार लोग जंगल से शहद एवं जड़ी बुटी भी एकत्रित कर बेचते भी हैं।

कमार जनजाति में क्रमशः पहाड़पत्तिया और बुंदरजीवा दो उपजातियाँ पाई जाती हैं। पहाड़पत्तिया कमार लोग पहाड़ में रहने वाले तथा बुंदरजीवा कमार मैदानी क्षेत्र में रहने वाले कहलाते हैं। इस उपजातियों में गोत्र पाये जाते हैं – जगत, तेकाम, मरकाम, सोढ़ी, मराई, छेदइहा और कुंजाम इनके प्रमुख गोत्र है। एक गोत्र के लोग अपने आपको एक पूर्वज की संतान मानते हैं। एक ही गोत्र के लड़के-लड़कियों में विवाह निषेध माना जाता है। इस जनजाति में परिवार प्रायः केन्द्रीय परिवार पाये जाते हैं। ये पितृवंशीय, पितृ सत्तात्मक एवं पितृ निवास स्थानीय होते हैं, किन्तु विवाह के कुछ समय बाद लड़का पिता की झोपड़ी के पास नई झोपड़ी बनाकर रहने लगता है। त्यौहार, सामाजिक कार्यों में सब एकत्रित हो जाते हैं।

विवाह रस्म कमार जनजाति में बड़े बूढ़ों की देख-रेख में संपन्न होती है। सामान्य विवाह के अतिरिक्त गुरांवट व घर जमाई प्रथा भी प्रचलित है। पैठू (घुसपैठ), उढ़रिया (सहपलायन) को परंपरागत सामाजिक पंचायत में समाजिक दंड के बाद समाज स्वीकृति मिल जाती है। विधवा, त्यक्ता, पुनर्विवाह (चूड़ी पहनाना) को मान्यता है। विधवा भाभी देवर के लिए चूड़ी पहन सकती हैं।

मृत्योपरांत मृतक के शरीर को दफनाते हैं। तीसरे दिन तीजनहावन होता है, जिसमें परिवार के पुरूष सदस्य दाढ़ी मूँछ व सिर के बालों का मुंडन कराते हैं। घर की सफाई स्वच्छता कर सभी स्थान पर हल्दी पानी छिड़करे अपने शरीर के कुछ भागों में भी लगाते हैं। यदि किसी कारणवश मृत्युभोज नहीं दे पाये तो 1 वर्ष के अंदर आर्थिक अनुकूलता अनुसार भोज दिया जाता है।

कमार जनजाति में भी सामाजिक व्यवस्था बनाये रखने के लिए एक परंपरागत जाति पंचायत (सामाजिक पंचायत) होती है। कमार जनजाति के सभी व्यक्ति उस पंचायत का सदस्य होता है। इस पंचायत के प्रमुख ‘‘मुखिया‘‘ कहलाता है। सामान्य जातिगत विवादों का निपटारा गांव में ही कर लिया जाता है। अनेक ग्रामों को मिलाकर एक क्षेत्रीय स्तर की जाति पंचायत पाई जाती है। जब कोई त्यौहार, मेला या सामूहिक पर्व मनाया जाता है, उस समय इस पंचायत की बैठक आयोजित की जाती है। इस पंचायत में वैवाहिक विवाद, अन्य जाति के साथ वैवाहिक या अनैतिक संबंध आदि विवादों का निपटारा किया जाता है।

कमार जनजाति के प्रमुख देवी कचना, धुरवा, बूढ़ादेव, ठाकुर देव, वामन देव, दूल्हा देव, बड़ी माता, मंझली माता, छोटी माता, बू़ढ़ी माई, धरती माता आदि है। पोगरी देवता (कुलदेव), मांगरमाटी (पूर्वजों के गाँव व घर की मिट्टी), गाता डूमा (पूर्वज) की भी पूजा करते हैं। पूजा में मुर्गी, बकरा आदि की बलि भी चढ़ाते हैं।

इनके प्रमुख त्यौहार हरेली, पोरा, नवाखाई, दशहरा, दिवाली, छेरछेरा, होली आती हैं। त्यौहार के समय मुर्गी, बकरा आदि का मांस खाते एवं शराब पीते हैं। भूत-प्रेत, जादू-टोना पर भी विश्वास करते हैं। तंत्र-मंत्र का जानकार बैगा कहलाता है।

इस जनजाति की महिलाएँ दिवाली में सुवा नाचती हैं। विवाह में पुरूष व महिलाएँ दोनों नाचते हैं। पुरूष होली व दिवाली के समय खूब नाचते हैं।

2011 की जनगणना अनुसार कमार जनजाति में साक्षरता 47.7 प्रतिशत दर्शित है। पुरूषों में साक्षरता 58.8 प्रतिशत तथा स्त्रियों में 37.0 प्रतिशत है।

बैगा

बैगा छत्तीसगढ़ की एक विशेष पिछड़ी जनजाति है। छत्तीसगढ़ में उनकी जनसंख्या जनगणना 2011 में 89744 दशाई गई है। राज्य में बैगा जनजाति के लोग मुख्यतः कवर्धा और बिलासपुर जिले में पाये जाते हैं। मध्य प्रदेश के डिंडौरी, मंडला, जबलपुर, शहडोल जिले में इनकी मुख्य जनसंख्या निवासरत है।

बैगा जनजाति के उत्पत्ति के संबंध में ऐतिहासिक प्रमाण उपलब्ध नहीं है। रसेल, ग्रियर्सन आदि में इन्हें भूमिया, भूईया का एक अलग हुआ समूह माना जाता है। किवदंतियों के अनुसार ब्रह्मा जी सृष्टि की रचना की तब दो व्यक्ति उत्पन्न किये। एक को ब्रह्मा जी ने ‘‘नागर‘‘ (हल) प्रदान किया। वह ‘‘नागर‘‘ लेकर खेती करने लगा तथा गोंड कहलाया। दूसरे को ब्रह्माजी ने ‘‘टंगिया‘‘ (कुल्हाड़ी) दिया। वह कुल्हाड़ी लेकर जंगल काटने चला गया, चूंकि उस समय वस्त्र नहीं था, अतः यह नंगा बैगा कहलाया। बैगा जनजाति के लोग इन्हीं को अपना पूर्वज मानते हैं।

बैगा जनजाति के लोग पहाड़ी व जंगली क्षेत्र के दुर्गम स्थानों में गोंड, भूमिया आदि के साथ निवास करते हैं। इनके घर मिट्टी के होते हैं, जिस पर घास फूस या खपरैल की छप्पर होती है। दीवाल की पुताई सफेद या पीली मिट्टी से करते हैं। घर की फर्श महिलाएं गोबर और मिट्टी से लीपती हैं। इनके घर में अनाज रखने की मिट्टी की कोठी, धान कूटने का ‘‘मूसल‘‘, ‘‘बाहना‘‘, अनाज पीसने का ‘‘जांता‘‘, बांस की टोकरी, सूपा, रसोई में मिट्टी, एलुमिनियम, पीतल के कुछ बर्तन, ओढ़ने बिछाने के कपड़े, तीर-धनुष, टंगिया, मछली पकड़ने की कुमनी, ढुट्टी, वाद्ययंत्र में ढोल, नगाड़ा, टिसकी आदि होते हैं।

बैगा जनजाति की महिलाएं शरीर में हाथ पैर, चेहरे पर स्थानीय ‘‘बादी‘‘ जाति की महिलाओं से गोदना गुदाती हैं। पुरूष लंगोटी या पंछा पहनते हैं। शरीर की ऊपरी भाग प्रायः खुला होता है। नवयुवक बंडी पहनते हैं। महिलाएँ सफेद लुगड़ा घुटने तक पहनती हैं। कमर में करधन, गले में रूपिया माला, चेन माला, सुतिया, काँच की मोतियों की गुरिया माला, हाथों में काँच की चूड़ियाँ, कलाई में ऐंठी, नाक में लौंग, कान में खिनवा, कर्णफूल आदि पहनती हैं। इनके अधिकांश गहने गिलट या नकली चाँदी के होती हैं। इनका मुख्य भोजन चावल, कोदो, कुटकी का भात, पेज, मक्का की रोटी या पेज, उड़द, मूँग, अरहर की दाल, मौसमी सब्जी, जंगली कंदमूल फल, मांसाहार में मुर्गा, बकरा, मछली, केकड़ा, कछुआ, जंगली पक्षी, हिरण, खरगोश, जंगली सुअर का मांस आदि हैं। महुए से स्वयं बनाई हुई शराब पीते हैं। पुरूष तंबाकू को तेंदू पत्ता में लपेटकर चोंगी बनाकर पीते हैं।

बैगा जनजाति के लोग पहले जंगल काटकर उसे जला कर राख में ‘‘बेवर‘‘ खेती करते थे। वर्तमान में स्थाई खेती पहाड़ी ढलान में करते हैं। इसमें कोदो, मक्का, मड़िया, साठी धान, उड़द, मूँग, झुरगा आदि बोते हैं। जंगली कंदकूल संग्रह, तेंदू पत्ता, अचार, लाख, गोंद, शहद, भिलावा, तीखुर, बेचाँदी आदि एकत्र कर बेचते हैं। पहले हिरण, खरगोश, जंगली सुअर का शिकार करते थे, अब शिकार पर शासकीय प्रतिबंध है। वर्षा ऋतु में कुमनी, कांटा, जाल आदि से स्वयं उपयोग के लिए मछली पकड़ते हैं। महिलाएँ बाँस की सुपा, टोकरी भी बनाकर बेचती हैं।

बैगा जनजाति कई अंतः विवाही उपजातियाँ पाई जाती है। इनके प्रमुख उपजाति – बिंझवार, भारोटिया, नरोटिया (नाहर), रामभैना, कटभैना, दुधभैना, कोडवान (कुंडी), गोंडभैना, कुरका बैगा, सावत बैगा आदि है। उपजातियाँ विभिन्न बहिर्विवाही ‘‘गोती‘‘ (गोत्र) में विभक्त है। इनके प्रमुख गोत्र मरावी, धुर्वे, मरकाम, परतेती, तेकाम, नेताम आदि हंै। जीव-जंतु, पशु-पक्षी, वृक्ष लता आदि इनके गोत्रों के टोटम होते हैं। यह जनजाति पितृवंशीय, पितृसत्तात्मक व पितृ निवास स्थानीय हैं। अर्थात् लड़कियाँ विवाह के पश्चात वधू वर के पिता के घर जाकर रहने लगती हैं। उनके संतान अपने पिता के वंश के कहलाते हैं।

संतानोत्पत्ति भगवान की देन मानते हैं। गर्भवती महिलाएँ प्रसव के पूर्व तक सभी आर्थिक व पारिवारिक कार्य संपन्न करती हैं। प्रसव घर में ही स्थानीय ‘‘सुनमाई‘‘ (दाई) तथा परिवार के बुजुर्ग महिलाएँ कराती हैं। प्रसूता को सोंठ, पीपल, अजवाईन, गुड़ आदि का लड्डू बनाकर खिलाते हैं। छठे दिन छठी मनाते हैं व नवजात शिशु को नहलाकर कुल देवी-देवता का प्रणाम कराते हैं। घर की लिपाई पुताई करते हैं। रिश्तेदारों को शराब पिलाते हैं।

विवाह उम्र लड़कों का 14-18 वर्ष तथा लड़कियों का 13-16 वर्ष माना जाता है। विवाह प्रस्ताव वर पक्ष की ओर से होता है। मामा बुआ के लड़के-लड़कियों के बीच आपस में विवाह हो जाता है। वर पक्ष द्वारा वधू पक्ष को ‘‘खर्ची‘‘ (वधूधन) के रूप में चावल, दाल, हल्दी, तेल, गुड़ व नगद कुछ रकम दिया जाता है। विवाह की रस्म बुजुर्गों के देखरेख में संपन्न होता है। लमसेना (सेवा विवाह), चोरी विवाह (सह पलायन), पैठू विवाह (घूसपैठ), गुरावट (विनिमय) को समाज स्वीकृति प्राप्त है। पुनर्विवाह (खड़ोनी) भी प्रचलित है। मृत्यु होने पर मृतक को दफनाते हैं। तीसरे दिन घर की साफ-सफाई, लिपाई करते हैं। पुरूष दाढ़ी-मूँछ के बाल काटते हैं। 10 वें दिन दशकरम करते हैं, जिसमें मृतक की आत्मा की पूजा कर रिश्तेदारों को मृत्यु भोज कराते हैं।

इनमें परंपरागत जाति पंचायत पाया जाता है। इस पंचायत में मुकद्दम, दीवान, समरथ और चपरासी आदि पदाधिकारी होते हैं। पैठू, चोरी विवाह, तलाक, वैवाहिक विवाद, अनैतिक संबंध आदि का निपटारा इस पंचायत में परंपरागत तरीके से सामाजिक भोज या जुर्माना लेकर किया जाता है।

इनमें प्रमुख देवी-देवता बुढ़ा देव, ठाकुर देव, नारायण देव, भीमसेन, घनशाम देव, धरती माता, ठकुराइन माई, खैरमाई, रातमाई, बाघदेव, बूढ़ीमाई, दुल्हादेव आदि हैं। इनके पूजा में मुर्गा, बकरा, सूअर की बलि देते हैं। कभी-कभी नारियल, खरेक व दारू से ही पूजा संपन्न कर लेते हैं। इनके प्रमुख त्यौहार हरेली, पोला, नवाखाई, दशहरा, काली चैदश, दिवाली, करमा पूजा, होली आदि हैं। जादू-टोना, मंत्र, तंत्र भूत-पे्रत में काफी विश्वास करते हैं। ‘‘भूमका‘‘ इनके देवी-देवता का पुजारी व भूत-प्रेत भगाने वाला होता है।

इनमे प्रमुख लोक नृत्यों में करम पूजा पर करमा, नाच विवाह में विलमा नाच, दशहरा में झटपट नाच नाचते हैं। छेरता इनका नृत्य नाटिका है। इनके प्रमुख लोकगीत करमा गीत, ददरिया, सुआ गीत, विवाह गीत, माता सेवा, फाग आदि है। इनमें प्रमुख वाद्य यंत्र मांदर, ढोल, टिमकी, नगाड़ा, किन्नरी, टिसकी आदि है।

वर्ष 2011 की जनगणना में इस जनजाति में साक्षरता 40.6 प्रतिशत थी। पुरूषों में साक्षरता 50.4 प्रतिशत तथा महिलाओं में 30.8 प्रतिशत थी।

बिरहोर

बिरहोर छत्तीसगढ़ की एक विशेष पिछड़ी जनजाति है। देश में इनकी अधिकांश जनसंख्या झारखंड राज्य में निवासरत है। वर्ष 2011 की जनगणना में छत्तीसगढ़ में इनकी जनसंख्या 3104 दर्शाई गई है। इनमें पुरूष 1526 एवं महिला 1578 थी। इस जनजाति के लोग छत्तीसगढ़ के रायगढ़ जिले के धरमजयगढ़, लैलूंगा, तमनार विकासखण्ड में, जशपुर जिले के बगीचा, कांसाबेल, दुलदुला, पत्थलगांव विकासखण्डों में, कोरबा जिले के कोरबा, पोड़ी उपरोड़ा, पाली विकासखण्ड तथा बिलासपुर जिले के कोटा व मस्तूरी विकासखण्ड में निवासरत हैं।

बिरहोर जनजाति के उत्पत्ति के संबंध में ऐतिहासिक प्रमाण उपलब्ध नहीं है। इन्हें कोलारियन समूह की जनजाति माना जाता है। इनमें प्रचलित किवदंती के अनुसाार सूर्य के द्वारा सात भाई जमीन पर गिराये गये थे, जो खैरागढ़ (कैमूर पहाड़ी) से इस देश में आये। चार भाई पूर्व दिशा में चले गये और तीन भाई रायगढ़ जशपुर की पहाड़ी में रह गये। एक दिन वे तीनों भाई देश के राजा से युद्ध करने निकले तथा उनमें से एक भाई के सिर का कपड़ा पेड़ में अटग गया इसे अशुभ लक्षण मानकर वह जंगल में चला गया तथा जंगल की कटीली झाड़ियों को काटने लगा।

बचे दो भाई राजा से युद्ध करने चले गये और उसे युद्ध में हरा दिया। जब वे वापस आ रहे थे, तो उन्होंने अपने भाई को जंगल में ‘‘चोप‘‘ (झाड़ी) काटते देखा वे उसे बिरहोर (जंगल का आदमी या चोप काटने वाला) कहकर पुकारने लगे। वह गर्व से कहा कि हाँ भाइयों मैं बिरहोर हूँ और वह व्यक्ति जंगल में ही रहने लगा। उनकी संताने भी बिरहोर कहलाने लगी। मुण्डारी भाषा में ‘‘बिर‘‘ अर्थात् जंगल अथवा झाड़ी एवं ‘‘होर‘‘ का अर्थ आदमी है। बिरहोर का अर्थ जंगल का आदमी या झाड़ी काटने वाला आदमी हो सकता है।

बिरहोर जनजाति के लोग पर्वतीय क्षेत्रों में गाँव में अन्य जनजातियों से कुछ दूर जंगल के किनारे झोपड़ी बनाकर रहते हैं। इनका ‘‘कुड़िया‘‘ (झोपड़ी) लकड़ी और घास फूस की होती है। ‘‘कुड़िया‘‘ में एक ही कमरा होता है। किनारे में धान कूटने का मूसल, चटाई, बांस की टोकरी, टोकरा, सूपा, मिट्टी व एल्युमिनियम के कुछ बर्तन, तीर-कमार, कुल्हाड़ी, मछली पकड़ने के जाल आदि होते हैं। इनके पास ओढ़ने-बिछाने का पर्याप्त साधन नहीं है। सामान्यतः यह जमीन पर पैरा बिछाकर सोते हैं। जाड़े के मौसम में पूरा परिवार अलाव जलाकर उसके चारों ओर सोता है। कुछ बिरहोर के यहाँ शहनाई, मांदर, ढोलक, ढफली, लोहारी, नगाड़ा, ढिमरी, आदि वाद्ययंत्र पाये गये हैं। पुरूष सामान्यतः लंगोटी या छोटा पंछा पहनते हैं। स्त्रियाँ लुगड़ा पहनती हैं। स्त्रियाँ पीतल, गिलट आदि की हाथ मेें पट्टा या ऐंठी, गले में माला, कान में खिनवा, नाक में फूली पहनती हैं। इनका मुख्य भोजन चांवल कोदो की पेज, बेलिया, कुलथी, उड़द की दाल, जंगली कंदमूल व मौसमी साग-भाजी है। मांसाहार में मुर्गी, बकरा, मछली, चूहा, केकड़ा, कछुआ, खरगोश, हिरण, सुअर, बंदर, जंगली पक्षियों का मांस खा लेते हैं। महुआ का शराब बनाकर पीते हैं।

इनका मुख्य कार्य शिकार, जंगली, कंदमूल, भाजी, जंगली उपज एकत्र करनी है। मोहलाइन छाल की रस्सी व बाँस के टुकना, झऊंहा बनाकर भी बेचते हैं। घर के आस-पास की भूमि में साठी धान, मक्का, कोदो, उड़द आदि भी बो लेते हैं। इनका खाद्य पदार्थ (धान-चावल) खत्म हो जाता है तो ये जंगल से नकौआ कांदा, डिटे कांदा, पिठास कांदा या लागे कांदा खोदकर लाते हैं। इसे भूनकर या उबालकर खाते हैं। ये सालेहा व पोटे नामक वृक्ष की लकड़ी से ढोलक, मांदर की खोल बेहंगा आदि बनाकर बेचते हैं। वर्षा ऋतु में मछली भी पकड़ते हैं। पहले जंगली पशु हिरण, खरगोश लोमड़ी, सियार, बंदर तथा पक्षियों का शिकार भी करते थे। शिकार तथा कंदमूल संग्रहण इनकी आदिम अर्थव्यवस्था का परिचायक था।

घुमंतू जीवन व्यतीत करने वाले बिरहोर उथलू कहलाते थे, जो शिकार व कंदमूल की खोज में पहाड़ियों में जंगलों में अस्थाई निवास बना कर घूमते थे। जो स्थाई कुड़िया बनाकर गाँव के समीप निवास करते हैं जघीश बिरहोर कहलाते हैं। इस जनजाति में कई बहिर्विवाही गोत्र पाया जाता है। इनके प्रमुख गोत्र सोनियल, गोतिया, बंदर गोतिया, बघेल, बाड़ी, कछुआ, छतोर, सोनवानी व मुरिहार आदि है।

संतान की प्राप्ति शुभ मानते हैं। पुत्र हो या पुत्री ईश्वर की देन मानी जाती है। गर्भावस्था में कोई विशेष संस्कार नहीं होता। गर्भवती समस्त आर्थिक व पारिवारिक कार्य करती हैं। प्रसव के वक्त प्रसूता को अलग झोपड़ी (कुड़िया) में रखते हैं। कुसेरू दाई जो इन्हीं की जाति की होती है, प्रसव कराती है। एक माह तक प्रसूता व नवजात शिशु उसी कुड़िया में रहते हैं। सातवें दिन छठी मनाते हैं, जिसमें प्रसूता व नवजात शिशु को नहलाकर प्रातः कालीन सूर्य का दर्शन व पूजन कराते हैं। रिश्तेदारों को शराब पिलाते हैं तथा भोजन कराते हैं।

विवाह उम्र सामान्यतः लड़कों के लिए 16 से 18 तथा लड़कियों के लिए 14 से 16 वर्ष माना जाता है। विवाह प्रस्ताव वर पक्ष की ओर से आता है। विवाह तय होने पर वर के पिता कन्या के पिता को दो खंडी चावल, पाँच कुड़ो दाल, दो हड़िया शराब, लड़की के लिए एक लुगड़ा तथा उसकी माँ के लिए एक मायसारी देता है। विवाह की रस्म बिरहोर जाति का ढेड़हा (पुजारी) संपन्न कराता है। इसके अतिरिक्त ढूकू, उढ़रिया, गोलत (विनिमय) प्रथा को भी विवाह मान्य किया जाता है। विधवा तथा विवाहिता को दूसरे व्यक्ति के साथ चूड़ी पहनने (पुनर्विवाह) की अनुमति है।

 

मृत्यु होने पर मृतक को दफनाते हैं। परिवार में पुरूष सदस्य दाढ़ी-मूँछ, सिर के बाल कटाते हैं, स्नान करते हैं। पहले पुरानी कुड़िया को तोड़कर नई कुड़िया बना लेते थे। एक माह बाद भी रिश्तेदारों को मृत्युभोज देते हैं।

इस समाज में परंपरागत जाति पंचायत पाई जाती है। जाति पंचायत का प्रमुख ‘‘मालिक‘‘ कहलाता है। इस पंचायत में ढूकू विवाह, सहपलायन, विवाहिता का पहले पति को छोड़ पुनर्विवाह करने पर ‘‘सूक‘ वापस करना, अनैतिक संबंध आदि का परंपरागत तरीके से न्याय किया जाता है।

बिरहोर जनजाति के प्रमुख देवता सूरज (सूर्य) है। इसके अतिरिक्त बूढ़ी माई, मरी माई, पूर्वज पहाड़, वृक्ष आदि की भी पूजा करते हैं। पूजा में शराब चढ़ाते हैं तथा मुर्गा, बकरा, सुअर आदि की बलि देते हैं। इनके प्रमुख त्यौहार नवाखानी, दशहरा, सरहुल, करमा, सोहराई और फगुआ है। भूत-प्रेत, टोना, जादू, मंत्री आदि पर काफी विश्वास करते हैं। इनके मंत्र-तंत्र का जड़ी-बूटी का जानने वाला पाहन कहलाता है। स्थानीय अन्य जनजाति के लोग बिरहोर जाति के लोगों को टोना जादू करने में माहिर मानते हैं, इनसे डरते हैं।

बिरहोर जनजाति के लोग करमा, फगुआ, बिहाव नाच आदि नाचते हैं। इनके लोक गीतों में करमा गीत, फगुआ गीत, विवाह गीत प्रमुख हैं। इनके प्रमुख वाद्य यंत्र मांदर, ढोल, ढफली, टिमकी आदि हैं।

बिरहोर जनजाति में साक्षरता 2011 की जनगणना में 39.0 प्रतिशत थी। पुरूषों में साक्षरता 49.6 प्रतिशत तथा महिलाओं में साक्षरता 28.7 प्रतिशत थी।

पहाड़ी कोरवा

छत्तीसगढ़ में पहाड़ी कोरवा विशेष पिछड़ी जनजाति जशपुर, सरगुजा, बलरामपुर, तथा कोरबा जिले में निवासरत है। सर्वेक्षण वर्ष 2005-06 के अनुसार इनकी कुल जनसंख्या 34122 थी। वर्तमान में इनकी जनसंख्या बढ़कर लगभग 40 हजार से अधिक हो गई है। पहाड़ी कोरवा जनजाति की उत्पत्ति के संबंध में ऐतिहासिक प्रमाण उपलब्ध नहीं है। कालोनिल डाॅल्टन ने इन्हें कोलारियन समूह से निकली जाति माना है। किवदंतियों के आधार पर अपनी उत्पत्ति राम-सीता से मानते हैं। वनवास काल में राम-सीता व लक्ष्मण धान के एक खेत के पास से गुजर रहे थे। पशु-पक्षियों से फसल की सुरक्षा हेतु एक मानवाकार पुतले को धनुष-बाण पकड़ाकर खेत के मेढ़ में खड़ा कर दिया था। सीता जी के मन में कौतुहल करने की सूझी। उन्होंने राम से उस पुतले को जीवन प्रदान करने को कहा। राम ने पुतले को मनुष्य बना दिया यही पुतला कोरवा जनजाति का पूर्वज था।

एक अन्य मान्यता के अनुसार शंकर जी ने सृष्टि का निर्माण किया। तत्पश्चात् उन्होंने सृष्टि में मनुष्य उत्पन्न करने का विचार लेकर रेतनपुर राज्य के काला और बाला पर्व से मिट्टी लेकर दो मनुष्य बनाये। काला पर्वत की मिट्टी से बने मानव का नाम कइला तथा बाला पर्वत की मिट्टी से बने हुये मानव का नाम घुमा हुआ। तत्पश्चात् शंकर जी ने दो नारी मूर्ति का निर्माण किया जिनका नाम सिद्धि तथा बुद्धि था। कइला ने सिद्धि के साथ विवाह किया, जिनसे तीन संतानें हुईं पहले पुत्र का नाम कोल, दूसरे पुत्र का नाम कोरवा तथा तीसरे पुत्र का नाम कोडाकू हुआ। कोरवा के भी दो पुत्र हुये। एक पुत्र पहाड़ में जाकर जंगलों को काटकर दहिया खेती करेन लगा, पहाड़ी कोरवा कहलाया। दूसरा पुत्र जंगल को साफ कर हल के द्वारा स्थाई कृषि करने लगा, डिहारी कोरवा कहलाया।

पहाड़ी कोरवा जनजाति मुख्यतः पहाड़ी क्षेत्रों में निवास करती है। घर की दीवाल लकड़ी व बाँस से बनाते थे, जिस पर घास-फूंस का छप्पर होता था। वर्तमान में घर मिट्टी का बनाते हैं, जिस पर छप्पर देशी खपरैल का होता है। घर का फर्श मिट्टी का बना होता है, जिसे 8-10 दिन में एक बार मिट्टी या गोबर से लीपते हैं। घर प्रायः एक कमरे या दो कमरे का होता है। घरेलू वस्तुओं में भोजन बनाने का कुछ बर्तन, तीर-धनुष, कुल्हाड़ी, कुछ बाँस के टोकरे आदि होते हैं। पुरूष व महिलाएँ सप्ताह में एक या दो बार स्नान करते हैं। महिलाएँ एवं पुरूष सिर के बालों को लंबे रखते हैं। बालों को पीछे की ओर बाँध लेते हैं। स्त्रियाँ बालों में गुल्ली या मूँगफली का तेल लगाकर अब कंघी करने लगी हैं। स्त्रियाँ गिलट के गहने जैसे – हाथ में कड़े ऐंठी, नाक, कान में लकड़ी या गिलट के आभूषण पहनती हैं। पुरूष सामान्यतः कमर के नीचे लंगोटी लगाता है या पंछा पहनता है, शरीर का ऊपरी भाग खुला रहता है। कुछ लोग अब बंडी पहनने लगे हैं। स्त्रियाँ सिफ। लुगरा पहनती हैं। इनका प्रमुख भोजन कोदो, कुटकी, गोदली की पेज, कभी-कभी चावल की भात व जंगली कंदमूल, भाजी व मौसमी सब्जी है। मांसाहार में मुर्गी, सभी प्रकार के पक्षी, मछली, केकड़ा, बकरा, हिरण, सुअर आदि का मांस खाते हैं। महुआ से शराब बनाकर पीते हैं। पुरूष चोंगी पीते हैं।

इस जनजाति का आर्थिक जीवन मुख्यतः जंगली ऊपज संकलन शिकार पर आधारित था। वर्तमान में स्थाई बस कर कोदो-कुटकी, गोदली, धान, मक्का, उड़द, मूँग, कुलथी आदि की खेती करने लगे हैं। असिंचित व पथरीली जमीन होने के कारण उत्पादन बहुत कम होता है, जिनके पास कम कृषि भूमि है, वे अन्य जनजातियों के खेतों में मजदूरी करने जाने लगे हैं। जंगली उपज में मुख्यतः कंदमूल, भाजी, महुआ, चार, गोंद, तेंदूपत्ता, शहद, आँवला आदि एकत्र करते हैं। गोंद, तेंदूपत्ता, चार, शहद, आँवला को स्थानीय बाजारों में बेचते हैं। पुरूष-बच्चे पक्षियों का शिकार तीर-धनुष से करते हैं। पुरूष व महिलाएँ मछली, केकड़ा, घोंघा भी वर्षा ऋतु व अन्य ऋतु में छोटे नदी नाले से पकड़ते हैं। इसे स्वयं खाते हैं।

कोरवा जनजाति मुख्यतः दो उपसमूहों में बंटी हुई है। एक समूह जो शिकार वनोपज संग्रह तथा दहिया खेती करते थे। शिकार तथा वनोपज की खोज में एक पहाड़ से दूसरे पहाड़ घुमंतू जीवन व्यतीत करते थे, उन्हें पहाड़ी कोरवा कहा जाता है।

दूसरा समूह जो पहाड़ी कोरवा की अपेक्षा कुछ विकसित होकर स्थाई कृषि करने लगे तथा ग्रामों में स्थाई घर बनाकर रहने लगे। ‘‘डिह‘‘ (गाँव) में स्थाई रूप से रहने के कारण इन्हें डिहारी कोरवा कहा जाता है। पहाड़ी कोरवा जनजाति में मुड़िहार, हसदा, ऐदमे, फरमा, समाउरहला, गोनु, बंडा, इदिनवार, सोनवानी, भुदिवार, बिरबानी आदि गोत्र पाये जाते हैं।

इस जनजाति की गर्भवती महिलाएँ प्रसव के दिन तक सभी आर्थिक तथा पारिवारिक कार्य करती हैं। प्रसव के लिये पत्तों से निर्मित अलग झोंपड़ी बनाते हैं, जिसे ‘‘कुम्बा‘‘ कहते हैं। प्रसव इसी झोपड़ी में स्थानीय दाई जिसे ‘‘डोंगिन ‘‘ कहते हैं की सहायता से कराते हैं। बच्चे का नाल तीर के नोक या चाकू से काटते हैं। नाल झोपड़ी में ही गड़ाते हैं। प्रसूता को हल्दी मिला भात खिलाते हैं। कुलथी, एंठीमुड़ी, छिंद की जड़, सरई छाल, सांेठ-गुड़ से निर्मित काढ़ा भी पिलाते हैं। छठें दिन छठी मनाते हैं, बच्चे तथा माता को नहलाकर सूरज, धरती व कुल देवी को प्रणाम कराते हैं। महुआ से निर्मित शराब मित्रों को पिलाते हैं।

विवाह उम्र लड़कों में 16-20 वर्ष और लड़ियों में 15-18 वर्ष पाई जाती है। विवाह का प्रस्ताव वर पक्ष की ओर से होता है। विवाह में अनाज, दाल, तेल, गुड़ कुछ रूपये वधू के पिता को ‘‘सुक‘‘ के रूप में दिया जाता है। विवाह मंगनी, सूक बधौंनी, विवाह और गौना, इस प्रकार चार चरण में पूरा होता है। विवाह के 2-3 वर्ष बाद गौना होता है। फेरा करने का कार्य जाति का मुखिया संपन्न कराता है। इनमें ‘‘गुरावट‘‘ (विनिमय), ‘‘लमसेना‘‘ (सेवा विवाह), ‘‘पैठू‘‘ (घुसपैठ), ‘‘उढ़रिया‘‘ (सहपलायन) आदि भी पाया जाता है। विधवा पुनर्विवाह, देवर-भाभी का पुनर्विवाह भी मान्य है।

मृत्यु होने पर मृतक को दफनाते हैं। 10 वें दिन स्नान कर देवी-देवता एवं पूर्वजों की पूजा करते हैं। मृत्यु भोज देते हैं। जिस झोंपड़ीं में मृत्यु हुई थी, उसे नष्ट कर नई झोंपड़ी बनाकर रहते हैं।

इनमें अपनी परम्परागत जाति पंचायत पाई जाती है। जाति पंचायत का प्रमुख ‘‘मुखिया‘‘ कहलाता है। इस पंचायत में पटेल, प्रधान और भाट आदि पदाधिकारी होते हैं। कई ग्राम मिलकर गठित जाति पंचायत का मुखिया टोलादार कहलाता है। इस पंचायत में वधुमूल्य, विवाह, तलाक, अन्य जाति के साथ विवाह या अनैतिक संबंध आदि मामले निपटाये जाते हैं। जाति के देवी-देवता की पूजा व्यवस्था भी जाति पंचायत द्वारा कराई जाती है।

इनके प्रमुख देवी-देवता ठाकुरदेव, खुरियारानी, शीतलामाता, दुल्हादेव आदि हैं। इसके अतिरिक्त नाग, बाघ, वृक्ष, पहाड़, सूरज, चांद, धरती, नदी आदि को भी देवता मानकर पूजा करते हैं। पूजा के अवसर पर मुर्गे की बलि देते हैं व शराब चढ़ाते हैं। इनके प्रमुख त्यौहार दशहरा, नवाखानी, दिवाली, होली आदि है। भूत-पे्रत, जादू-टोना में भी विश्वास करते हैं। इनमें मंत्र जादू के जानकार व्यक्ति देवार बैगा कहलाता है।

इस जनजाति के लोग करमा, बिहाव, परघनी, रहस आदि नाचते हैं। लोकगीतों में करमा गीत, बिहाव गीत, फाग आदि प्रमुख हैं। इसकी अपनी विशिष्ट बोली है, जिसे ‘‘कोरवा बोली‘‘ कहते हैं।

वर्ष 2005-06 में कराये गये सर्वेक्षण में पहाड़ी कोरवा जनजाति में साक्षरता 22.02 प्रतिशत पाई गई थी। वर्तमान में बढ़कर पहले से अधिक हो चुकी है।

भुंजिया

भुंजिया जनजाति का संकेन्द्रण प्रमुख रूप से राज्य के गरियाबंद, धमतरी एवं महासमुंद जिले मे है। जनगणना 2011 अनुसार छत्तीसगढ़ राज्य मे भुंजिया जनजाति की जनसंख्या 10603 है। इनमें स्त्री-पुरूष लिंगानुपात 1029 है। इनकी साक्षरता दर 50.93 प्रतिशत है जिसमे पुरूष साक्षरता 64.19 एवं स्त्री साक्षरता 38.04 प्रतिशत है।

भुंजिया जनजाति की चैखुटिया भुंजिया एवं चिंदा भुंजिया दो उपजातियां है। मान्यता अनुसार चैखुटिया भुंजिया जनजाति की उत्पत्ति हल्बा पुरूष एवं गोंड महिला के विवाह से माना जाता है वही रिज़ले ने चिंदा भुंजिया की उत्पत्ति बिंझवार एवं गोंड जनजाति से मानी है। अन्य अवधारणा अनुसार आग मे जलने के कारण इन्हें भुंजिया कहा जाने लगा।

भुंजिया जनजाति ग्रामों मे क्षेत्र की गोंड, कमार आदि समुदायों के साथ निवासरत है। इनके घर सामान्यतः 02-03 कमरों के होते है। घर प्रायः मिट्टी के बने होते है। फर्श की लिपाई गोबर मिट्टी से प्रतिदिन की जाती है। भुंजिया जनजाति अपने आवास की साफ-सफाई एवं स्वच्छता का विशेष ध्यान रखते है। चैखुटिया भुंजिया लोग अपने घरों में पृथक से रांधा घर बनाते है जिसकी छत प्रायः घास-फूंस की होती है व दिवारे क्षेत्र मे पायी जाने वाली विशिष्ट प्रकार की लाल मिट्टी से पुताई की हुई होती है। जो पृथक से दिखाई पड़ती है। इनमे रांधा घर को ’’लाल बंगला’’ कहा जाता है। लाल बंगला के संबंध में माना जाता है कि यहां इनका देव स्थान होता है। इस रांधा घर को गोत्रज सदस्य के अतिरिक्त अन्य कोई स्पर्श नही कर सकते है।

भुंजिया लोगों के घरों में सीमित किन्तु आवश्यक दैनिक उपयोगी वस्तुएं, कृषि, शिकार, अर्थोपार्जन उपयोगी वस्तुएं, परिधान, कृषि, साज-श्रृंगार की वस्तुएं पायी जाती है। अनाज रखने की कोठी, अनाज पिसने जांता, ढेंकी, मूसल, भोजन पकाने एवं खाने के मिट्टी, एल्युमिनियम, कांसे के बर्तन, कृषि उपकरणों मे कुल्हाड़ी, बांस की टोकरी, सुपा, नांगर, मछली पकड़ने बांस निर्मित झापी, चोरिया व जाल होते है।

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भुंजिया महिलाएं हाथ, पैर, चेहने आदि पर गोदना गुदवाती है। पैरों में सांटी, हाथ मे पटा, ऐंठी, चुड़िया, गले मे रूपया माला, नाक में फुली, कान मे खिनवा आदि आभूषण गिलट व नकली चांदी से निर्मित हाट बाजार से क्रय कर पहनती है।

भुंजिया लोग कृषि कार्य मे धान, जोधरा, कोदो, उड़द तिल आदि का उत्पादन करते है। महुआ चार, गोंद, तेंदु आदि का संकलन करते है उपलब्धता अनुसार मछलियों का शिकार भी करते है। इनका मुख्य भोजन चांवल, कोदो, हड़िया एवं मौसमी सब्जिया है। उड़द, कुल्थी, बेलिया आदि दालों का उत्पादन किया जाता है। विशिष्ट अवसरों पर बकरा, मछली, मुर्गा व अन्य जन्तुओं का उपभोग करते है तथा महुआ से निर्मित मद का भी सेवन करते है।

भुंजिया जनजाति पितृवंशीय, पितृसत्तात्मक एवं पितृ स्थानीय व्यवस्था वाला समाज है। इनमें नेताम, मरई, पाती, सेठ, दीवान, नाईक, सरमत, सुआर, आदि गोत्र पाये जाते है। इनके गोत्र टोटेमिक एवं बर्हिविवाही होते है।

 

भुंजिया जनजाति में गर्भावस्था में कोई विशिष्ट संस्कार नही किये जाते। प्रसव सामान्यतः घर पर हीे स्थानीय दाई या परिवार की बुजुर्ग महिला की देख-रेख में किया जाता है। प्रसव पश्चात प्रसुता को जड़ीबुटियों से निर्मित कसा पानी दिया जाता है। छठे दिन छठी संस्कार व शुद्धिकरण का कार्य किया जाता है जिसमें उनपर दूध छिड़कर उन्हें पवित्र किया जाता है तथा संबंधियों को भोज कराया जाता है।

इनमें बालिकाओ के रजोदर्शन के पूर्व कांड विवाह का संस्कार अनिवार्य है जिसमें बालिका का विवाह तीर या बंाड के साथ कराया जाता है। इनमें विवाह हेतु विवाह प्रस्ताव वर पक्ष की ओर से होता है। वर पक्ष द्वारा वधू पक्ष को सूक के रूप में चांवल, दाल, गुड़ आदि दिया जाता है। विवाह संबंधी रस्म जाति के सरमत गोत्र के बुजुर्ग व्यक्ति द्वारा सम्पन्न कराई जाती है। इनमें ओढरिया, पैठू, लमसेना, चूड़ी विवाह आदि समाज द्वारा अधिमान्य विवाह है।

इनमे मृत्यु होने पर मृतक को दफनाएं जाने की प्रथा है। तीसरे दिन घर की लिपाई पुताई कर स्नान किया जाता है। जिसे तीज नहावन कहा जाता है। समगोत्रीय पुरूष दाढ़ी मुंछ एवं सिर के बाल का मुण्डन कराते है। व दसवें दिन मृत्यु भोज दिया जाता है। यह समुदाय आत्मावादी है।

इनमें परम्परागत भुंजिया जाति पंचायत पायी जाती है। इनमें पुजेरी, पाती, दीवान, के प्रमुख पद होते है जो वंशानुगत होते है। जिसमें समाजिक लड़ाई झगड़े, अनैतिक संबंध, अन्र्तजातीय विवाह, आदि के मामले सुलझाये जाते है। दण्ड के रूप में नगद एवं सामाजिक बहिष्कार जैसे प्रावधान होते है।

इनके प्रमुख देवी-देवताओ में बुढ़ादेव, ठाकुरदेव, भैसासुर, बुढ़ीमाई, काना भैरा, कालाकुंवर, डुमादेव, आदि प्रमुख है। नवाखाई, हरेली, पोला ,दशेरा, दिवाली, प्रमुख त्यौहार है।

भुंजिया जनजाति में बिहाव नृत्य, पड़की, रहस, राम सप्ताह आदि लोकगीत एवं लोकनृत्य प्रचलित है।

छत्तीसगढ़ राज्य की अनुसूचित जन

स्त्रोत : http://cgtrti.gov.in/PVTG_hn.html

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